________________
जीव पदार्थ : टिप्पणी ६
(५) जो आँखों से नहीं देखा जाता परन्तु खुद ही आँखों की ज्योति स्वरूप है, जिसके रूप तो नहीं है। परन्तु जो खुद रूप को जानता है, वही आत्म-पदार्थ है।
(६) जिसका प्रकट लक्षण चैतन्य और जो अपने इस गुण को किसी भी अवस्था में नहीं छोड़ता, जो निद्रा, स्वप्न और जागृत अवस्था में सदा इस गुण से जाना जाता है वही आत्मा या जीव है।
(७) यदि जानी जाने वाली घट, पट आदि चीजों का होना वास्तविक है तो उनको जानने वाले आत्म-पदार्थ का अस्तित्व कैसे न होगा।
(८) जिस वस्तु में जानने की शक्ति या स्वभाव नहीं है वह जड़ है और जानना जिसका सदा स्वभाव है वह चैतन्य है। इस प्रकार जड़ और चैतन्य दोनों के भिन्न-भिन्न स्वभाव है, और वे स्वभाव कभी एक न होंगे। दोनो की भिन्नता इस बातों से अनुभव में आती है कि तीनों कालों में जड़, जड़ बना रहेगा और चैतन्य, चैतन्यः। (इन दलीलों की विस्तृत चर्चा के लिये देखें ‘रायपसेणइय सुत्त, "जैन दर्शन' और 'आत्म-सिद्धि' नामक पुस्तकें।)
स्वामीजी पाँचवें दोहे में इसी जीव पदार्थ का विवेचन करने की प्रतिज्ञा करते हैं | ६. द्रव्य जीव और भाव जीव (गा० १-२) :
चतुर्थ टिप्पणी में यह बताया जा चुका है कि लोक में षट् वस्तुएँ हैं
(१) जीवास्तिाकाय, (२) धर्मास्तिकाय, (३) अधर्मास्तिकाय, (४) आकाशास्तिकाय, (५) काल और (६) पुद्ग्लास्तिकाय। इन वस्तुओं को जैन परिभाषा में द्रव्य कहते हैं।
इन छहों द्रव्यों में से प्रत्येक के अलग-अलग गुण या धर्म है। गुण द्रव्य पहचानने के लक्षण हैं | जिस तरह आजकल विज्ञान में जड़ पदार्थों को जानने के लिये प्रत्येक की अलग-अलग लक्षणावली (properties) बतलाई जाती है उसी प्रकार भगवान महावीर ने संसार के मूलाधार द्रव्यों के पृथक-पृथक लक्षण बतलाये हैं।
द्रव्य क्या है ?-जो गुणों का आश्रय हो, उसके आश्रित होकर गुण रहते हैं वह द्रव्य है। और गुण क्या है ?-एक द्रव्य में ज्ञानादि रूप जो धर्म रहे हुए हैं वे गुण
१.
उत्त० २८ : ६ गुणाणमासओ दव्वं एगदव्वस्सिया गुणा ।