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नव पदार्थ
(१) 'मैं सुखी हूँ', "मैं दुःखी हूँ' इस प्रकार का जो अनुभव होता है, वह आत्मा के बिना नहीं हो सकता। यदि ऐसा मान लिया जाय कि शरीर से ही यह अनुभव होता है तब प्रश्न यह खड़ा होता है कि जब हम निद्रावस्था में होते हैं तब यह अनुभव किस सहारे होता है ? यदि आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न न होते तो इन्द्रियों के सुषुप्त रहने पर ऐसा अनुभव संभव न होता। इसलिए यह मानना पड़ता है कि आत्मा एक स्वतन्त्र द्रव्य
(२) आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है, यह बात इससे भी सिद्ध है कि इन्द्रियों के द्वारा इस बात या चीज का ज्ञान होता है-वह ज्ञान इन्द्रियों के नष्ट होने पर भी बना रहता है। यह तभी संभव हो सकता है जबकि इन्द्रियों से भिन्न कोई दूसरा पदार्थ हो जो इस ज्ञान को स्थायी रूप से रख सकता हो, अर्थात् इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान जिसमें स्मृति रूप से रहता है, वही आत्म पदार्थ है और वह इन्द्रियों से भिन्न है। यदि इन्द्रियाँ ही आत्मा हों, तो उनके नष्ट होने से उनके जरिये प्राप्त ज्ञान भी नष्ट होता, परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता। ज्ञान तो इन्द्रियों के नष्ट होने पर भी रहता है। इस तरह ज्ञान का जो आधार है, वह आत्म पदार्थ है। इन्द्रियों के ज्ञान की सीमा हो सकती है, परन्तु जिसके ज्ञान की सीमा नहीं होती-ऐसा जो अनुभववान या ज्ञानवान पदार्थ है वही आत्मा या. जीव
है।
(३) एक और तरह से भी आत्मा का इन्द्रियों से पृथकत्व सिद्ध किया जा सकता है। यह सबके अनुभव में आता है कि कभी-कभी आँखों के सामने से कोई चीज गुजर जाती है तो भी उसका अनुमान तक नहीं होता, कानों के पास में शब्द होते रहने पर भी हम उसको सुन नहीं पाते । आवश्यक इन्द्रियों के रहने पर भी ऐसा क्यों होता है ? इसका कारण यह है कि इन्द्रियों के अतिरिक्त एक और पदार्थ है जो इन्द्रियों के कार्य में सहायक होता है। बिना इस पदार्थ की सहायता के देहादि अपना कार्य नहीं कर सकते । जब इस पदार्थ का ध्यान किसी दूसरी ओर रहता है-अर्थात् अमुक चीज को देखने या सुनने आदि की ओर से उसकी उपेक्षा रहती है तब इन्द्रियाँ विद्यमान रहने पर भी प्रवृत्ति नहीं कर सकती। इस प्रकार जिसके गौर करने से इन्द्रियाँ कार्य करती हैं वह पदार्थ इन्द्रियों से भिन्न है और वही आत्मा या जीव है।
(४) प्रत्येक इन्द्रिय को अपने-अपने विषय का ही ज्ञान होत है, परन्तु जिसको सर्व इन्द्रियों के विषय का ज्ञान होता है वही आत्म-पदार्थ है।