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जीव पदार्थ : टिप्पणी ५
योग-ये आश्रव हैं। इन कर्म-हेतुओं से जीव- प्रदेशों में नये कर्मों का प्रवाह रहता है। चेतन जीव और जड़ पुद्गल एक दूसरे से गाढ़ सम्बन्धित होने पर भी अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते-चेतन चेतन स्वभाव को नहीं छोड़ता और जड़-जड़ स्वभाव को नहीं छोड़ता । अपने-अपने स्वभाव को रह अवस्था में कायम रखने से इन पदार्थों की सत्ता हमेशा रहती है, जिससे परस्पर ओतप्रोत हुए पदार्थों का पृथक्करण भी इस समय संभव है। जीव और पुद्गल का परस्पर आत्यन्तिक वियोग कर देना ही मोक्ष है। जीव को जड़ कर्मों से मुक्त करना संभव है। मुक्त करने का उपाय संवर और निर्जरा है। नये कर्मों के प्रवेश को रोकना संवर और संचित कर्मों का आत्म- प्रदेशों से झाड़ देना निर्जरा है ।
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लोक है, अलोक है, लोक में जीव हैं, अजीव हैं, संसारी जीव कर्मों से वेष्ठित-बद्ध है, वह सुख-दुःख का भोग करता है। वह नये कर्मों का उपार्जन भी करता है। कर्मों से मुक्त होने का जो उपाय है, वह संवर और निर्जरामय धर्म है। इस प्रकार नवों पदार्थ में- सद्भाव वस्तुओं में से प्रत्येक में आस्था रखना- दृढ़ प्रतीति करना - समकित सम्यक्-दर्शन अथवा समयक्त्व कहलाता है :
जीवाजीवा य बन्धोय पुण्णं पापासवा तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो सन्तए तहिया नव । । १४ ।। तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं । भावेण सइद्दहन्तस्स सम्मत्तं तं वियाहियं । । १५ ।।
- उत्तराध्ययन अ० २८
स्वामीजी ने चतुर्थ दोहे में ऐसे सम्यक्तव रखनेवाले को ही सम्यक् दृष्टि कहा है। जो मनुष्य उपर्युक्त नव सद्भाव पदार्थों के सम्यक् ज्ञान के द्वारा सम्यक् श्रद्धा प्राप्त कर लेता है उसका चरित्र भी कभी-कभी अवश्य सम्यक् हो जाता है। इस तरह सम्यक् दृष्टि जीव सम्यक् ज्ञान और सम्यक् श्रद्धा को प्राप्त करते ही मुक्ति का शिलान्यास कर डालता है । मुक्ति प्राप्त करना अब उसके लिये केवल काल सापेक्ष होता
है ।
५. जीव पदार्थ
जैन दर्शन आत्मवादी है। वह आत्मा के अस्तित्व को मानता है और उसे एक स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में प्रतिष्ठित करता है। नव पदार्थों में प्रथम पदार्थ जीव है। जीव को पदार्थ - स्वयं अवस्थित तत्त्व- मानने में निम्नलिखित दलीलें हैं :
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