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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी २३
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जैसे मकान के प्रवेश-द्वार को ढक देने पर वही अप्रवेश-द्वार हो जाता है वैसे ही आस्रव को रोक देने पर संवर होता है। जैसे मकान के बंद द्वार को खोल देने पर अप्रवेश-द्वार ही प्रवेश-द्वार हो जाता है वैसे ही संवर को खोल देने पर वह आस्रव-द्वार हो जाता है।
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-इन आस्रवों का जैसे-जैसे निरोध होता है संवर बढ़ता जाता है। सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग जैसे-जैसे घटते हैं-आस्रव बढ़ता जाता है।
स्वामीजी कहते हैं आस्रव जीव पर्याय है या अजीव पर्याय इसका निर्णय करने के लिए यह घट-बढ़ किस वस्तु की होती है यह विचारना चाहिए । अविरति उदयभाव है। इसके निरोध से विरति संवर होता है, जो क्षयोपशम भाव है। इस तरह आस्रव और संवर में जो घट-बढ़ होती है वह घट-बढ़ जीव के भावों की होती है। जिस प्रकार संवर भाव-जीव है उसी प्रकार आस्रव भी भाव-जीव है।
सावध योग घटने से निरवद्य योग बढ़ते हैं। स्वभाव का प्रमाद घटने से अप्रमाद संवर निरवद्य गुण बढ़ता है। कषाय आस्रव घटने से अकषाय संवर निरवद्य गुण बढ़ता है। अविरति घटने से विरति बढ़ती है। मिथ्यात्व घटने से संवर बढ़ता है। ऐसी परिस्थिति में संवर को जीव-पर्याय मानना और आस्रव को अजीव-पर्याय मानना परस्पर संगत नहीं' । यदि संवर जीव और अरूपी है तो उसका प्रतिपक्षी आस्रव भी जीव और अरूपी है।
असयंम के सत्रह प्रकारों का वर्णन पहले किया जा चुका है। वे अविरति आस्रव हैं। इन्हीं के प्रतिपक्षी सत्रह प्रकार के संयम हैं। इन्हें भगवान ने संवर कहा है। संवर जीव-लक्षण-परिणाम हैं वैसे ही आस्रव जीव-लक्षण-परिणाम हैं।
___ यहाँ प्रश्न किया जाता है-"आगम में आस्रव को ध्यान द्वारा क्षपण करने का उल्लेख है। यदि आस्रव जीव है तो फिर उसके क्षपण की बात कैसे ? अनुयोगद्वार में कहा है-"भावक्षपण दो प्रकार का है-आगम भावक्षपण, नो-आगम भावक्षपण । समझ कर उपयोग पूर्वक सूत्र पढ़ना-आगम भावक्षपण है। नो-आगम क्षपण दो प्रकार का है-(१) प्रशस्त और (२) अप्रशस्त । प्रशस्त चार प्रकार का है-क्रोधक्षपण, मानक्षपण, मायाक्षपण
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१. . टीकम डोसी की चर्चा