________________
आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी : १२
४६१
से कर्म का आगमन नहीं होता। भाव-योग कर्म के हेतु होते हैं-आस्रव रूप हैं। द्रव्य-योग भाव-योग के सहचर होते हैं।
स्वामीजी ने यहाँ कही हुई बात को अन्यत्र इस प्रकार रखा है-"(ठाणाङ्ग टीका में) “तीनूं ई जोगा नै क्षयोपशम भाव कह्या छै । अने आत्म नो वीर्य क्ह्यो छै । आत्मा नो वीर्य तो अरूपी छै । ए तो भाव जोग छै। द्रव्य जोग तो पुद्गल छै। ते भाव जोग रे साथै हालै छै। इम द्रव्य जोग भाव जोग जाणवा । भाव जोग ते आश्रव छै। डाहा हुवै ते विचारजो।"
स्वामीजी ने ठाणाङ्ग की टीका का उल्लेख किया है। वहाँ का विवेचन नीचे दिया जाता है :
"वीर्यातराय कर्म के क्षय और क्षयोपशम से उत्पन्न लब्धिविशेष के प्रत्ययरूप और अभिसंधि और अनभिसंधि पूर्वक आत्मा का जो वीर्य है वह योग है। कहा है-“योग, वीर्य, स्थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति, सामर्थ्य-ये योग के पर्याय हैं।' वीर्य योग दो प्रकार का है-सकरण और अकरण । अलेश्यी केवली के समस्त ज्ञेय और दृश्य पदार्थों के विषय में केवलज्ञान और केवलदर्शन को जोड़नेवाला जो अपरिस्पंद रहित, प्रतिघात रहित वीर्य विशेष है वह अकरण वीर्य है। मन योग, वचन योग और काय योग से अकरण योग का अभिप्राय नहीं है। सकरण वीर्य योग है। जिससे जीव कर्म द्वारा युक्त हो वह योग है। योग वीर्यान्तराय के क्षयोपशम जनित जीव-परिणाम विशेष है। कहा है-'मन, वचन और काय से युक्त जीव का आत्म-सम्बन्धी जो वीर्य-परिणाम है उसे जिनेश्वरों ने योग संज्ञा से व्यक्त किया है। अग्नि के योग से जैसे रक्तता घड़े का परिणाम होता है वैसे ही जीव के करणप्रयोग में वीर्य भी आत्मा का परिणाम होता है। मनकरण से युक्त जीव का योग-वीर्य पर्याय, दुर्बल को लकड़ी के १. ३०६ बोल की हुण्डी : बोल १५७ २. ठाणाङ्ग ३.१.१२४ टीका :
इह वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमसमुत्थलब्धिविशेषप्रत्ययमभिसन्ध्यनभिसन्धिपूर्वमात्मनो वीर्य योगः, आह च-जोगो वीरियं थामो उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा।
· सत्ती सामत्थन्ति य जोगस्य हवंति पज्जाया।। ३. ठाणाङ्ग ३.१.१२४ टीका :
युज्यते जीवः कर्मभिर्येन 'कम्मं जोगनिमित्तं बज्झइं' त्ति वचनात् युङ्क्ते प्रयुङ्क्ते यं पर्यायं स योगो-वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितो जीवपरिणामविशेष इति, आह चमणसा वयसा काएण वावि जुत्तस्य विरियपरिणामो। जीवस्स अप्पणिज्जो स जोगसन्नो जिणक्खाओ।। तेओजोगेण जहा रत्तत्ताई घडस्स परिणामो। जीवकरणप्पओए विरियमवि तहप्पपरिणामो।।