________________
जीव पदार्थ : टिप्पणी २
इस पुस्तक में क्रमशः इन्हीं नव पदार्थों का वर्णन है।
स्वामीजी ने द्वितीय दोहे में इन नवों पदार्थों का भलीभाँति ज्ञान प्राप्त करने पर जोर दिया है। इसका हेतु यह है : ज्ञान से पदार्थों का विषय का संशय दूर होता है। संशय दूर होने से तत्त्वों में शुद्ध श्रद्धा होती है। शुद्ध श्रद्धा होने से मनुष्य नया पाप नहीं करता । जब वह पापों का नवीन प्रवाह-आस्रव रोक देता है तब वह संवृत्त आत्मा हो जाता है। संवृत्त आत्मा तप के द्वारा संचित कर्मों का क्षय करने लगता है और क्रमशः सर्व कर्म क्षय कर अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है।
__ नव पदार्थों के ज्ञान बिना जीव की क्या हानि होती है, उसका वर्णन तृतीय दोहे में है।
जो मनुष्य इन पदार्थों की भलीभाँति जानकारी नहीं करता, उसका संशय दूर नहीं होता। बिना संशय दूर हुए निष्ठा उत्पन्न नहीं होती। निष्ठा बिना मनुष्य पाप से नहीं बचता । जो पाप से नहीं बचता उसके नये कर्मों का प्रवेश नहीं रुकता। जिसके नये कर्मों का प्रवेश नहीं रुकता उसका भव-भ्रमण भी नहीं मिटता । आगम में कहा है : “सच्ची श्रद्धा बिना चरित्रं संभव नहीं है; श्रद्धा होने से ही चरित्र होता है। जहाँ सम्यक्त्व और चरित्र युगवत् होते-एक साथ होते हैं, वहाँ पहले सम्यक्त्व होता है। जिसके श्रद्धा नहीं है, उसके सच्चा ज्ञान नहीं होता। सच्चे ज्ञान बिना चारित्र-गुण नहीं होते। चारित्र-गुणों के बिना कर्म-मुक्ति नहीं होती और कर्म-मुक्ति के बिना निर्वाण नहीं होता।"
१.
उत्त० २८ : २, ३५
नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गु त्ति पन्नत्तो जिणेहि वनदंसिहिं ।। नाणेण जाणई भावे दंसणेण य सद्दहे।
चरित्तेण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झई।। उत्त० २८ २६, ३०
नतिथ चरित्तं सम्मतविणं दंसणे उ भइयव्वं । सम्मतचरित्ताइं जुगवं पुव्वं व सम्मत्तं ।। नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा। अगुणिस्स नत्थि मोक्खो नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।।
२.