________________
आस्त्रव पदार्थ ( ढाल : २) : टिप्पणी : ८
रूप के प्रति राग-द्वेष करने का अत्याग असंवर - अविरति आस्रव है। त्याग संवर है। रूप देखकर राग-द्वेष करना अशुभ योगास्रव है। राग-द्वेष का टालना शुभ योगास्रव है ।
(३) घ्राणेन्द्रिय आस्रव :
जो सुगंध-दुर्गंध को ग्रहण करे - सूंघे वह घ्राणेन्द्रिय है । सुगंध - दुर्गंध में राग-द्वेष करना विकार है । विकार मोहजन्य भाव है । घ्राणेन्द्रिय क्षयोपशम भाव है। गंध घ्राणेन्द्रिय का विषय है । उसमें राग-द्वेष अशुभ परिणाम है।
४५३
उत्तराध्ययन (३२.४८) में कहा है...
घाणस्स गन्धं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु | तं दोसउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो । ।
गंध घ्राण ग्राह्य है। गंध नाक का विषय है। यह जो गंध का प्रिय लगना है, उसे राग का हेतु कहा है और यह जो गंध का अप्रिय लगना है, उसे द्वेष का हेतु । जो दोनों में समभाव रखता है वह वीतराग है । .
सुगंध-दुर्गंध के प्रति राग-द्वेष करने का अत्याग असंवर है- अविरति आस्रव है । त्याग-संवर है। नाक में गंध आने पर राग-द्वेष करना अशुभ योगास्रव है । राग-द्वेष का टालना शुभ योगास्रव है ।
(४) रसनेन्द्रिय आस्रव :
जो रस का आस्वादन करे उसे रसनेन्द्रिय कहते हैं। अच्छे-बुरे रसों में राग-द्वेष विकार है । विकार मोहजन्य भाव है । रसनेन्द्रिय क्षयोपशम भाव है। रसास्वादन रसनेन्द्रिय का विषय है। उसमें राग-द्वेष अशुभ परिणाम है।
उत्तराध्ययन (३२.६१) में कहा है :
१.
२.
जिब्भाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नाहु ।
तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो । ।
रस जिह्वाग्राह्य है। रस जिह्वा का विषय है। यह जो रस का प्रिय लगना है, उसे राग का हेतु कहा है और यह जो रस का अप्रिय लगना है, उसे द्वेष का हेतु । जो दोनों में समभाव रखता है वह वीतराग है ।
पाँच इन्द्रियानी ओलखावण
वही