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________________ ४५२ नव पदार्थ ८. पंचेन्द्रिय आस्रव-(गा० ११-१३) : इन गाथाओं में श्रोत्रेन्द्रिय आदि पाँच आस्रवों की परिभाषाएँ दी गई हैं। उनकी व्याख्याएँ नीचे दी जाती हैं : (१) श्रोत्रेन्द्रिय आस्रव : जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों को सुने वह श्रोत्रेन्द्रिय है। कान में पड़ते हुए मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों से राग-द्वेष करना विकार है। विकार और श्रोत्रेन्द्रिय एक नहीं। श्रोत्रेन्द्रिय का स्वभाव सुनने का है। वह क्षयोपशम भाव है। विकार-राग-द्वेष अशुभ परिणाम हैं। उत्तराध्ययन (३२.३५) में कहा है : सोयस्स सदं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो।। __शब्द श्रोत्र-ग्राह्य है। शब्द कान का विषय है। यह जो शब्द का प्रिय लगना है, उसे राग का हेतु कहा है और यह जो शब्द का अप्रिय लगना है उसे द्वेष का हेतु। जो इन दोनों में समभाव रखता है, वह वीतराग है। शब्द के ऊपर राग-द्वेष करने का अत्याग अविरति आस्रव है। त्याग संवर है। शब्द सुनकर राग-द्वेष करना अशुभ योगास्रव है। शब्द सुनकर राग-द्वेष का टालना शुभ योग आस्रव है। (२) चक्षु इन्द्रिय आस्रव : __ जो अच्छे-बुरे रूपों को देखती है वह चक्षु इन्द्रिय है। अच्छे-बुरे रूपों में राग-द्वेष करना विकार है। विकार मोहजनित भाव है। चक्षु इन्द्रिय दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम भाव है। रूप चक्षु इन्द्रिय का विषय है उसमें राग-द्वेष अशुभ परिणाम है। उत्तराध्ययन (३२.२२) में कहा है : चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो।। रूप चक्षु-ग्राह्य है। रूप चक्षु का विषय है। यह जो रूप का प्रिय लगना है, उसे राग का हेतु कहा है और यह जो रूप का अप्रिय लगना है, उसे द्वेष का हेतु । जो इन दोनों में समभाव रखता है वह वीतराग है। १. पाँच इन्द्रियानी ओलखावण
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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