SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 475
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५० होने पर राग-परिणाम से युक्त स्त्री और पुरुष के जो एक दूसरे को स्पर्श करने की इच्छा होती है वह मिथुन है। इसका कार्य मैथुन कहलाता है। सर्व कार्य मैथुन नहीं । राग-परिणाम के निमित्त से होनेवाली चेष्टा मैथुन है । 'प्रमत्तयोगात्' की अनुवृत्ति से रतिजन्य सुख के लिए स्त्री-पुरुष की मिथुनविषयक चेष्टा मैथुन है ।" श्री अकलङ्कदेव ने रतिजन्य सुख के लिए केवल स्त्री या पुरुष की चेष्टा को भी मैथुन कहा है: “यहाँ एक ही व्यक्ति कामरुपी पिशाच के सम्पर्क से दो हो गए हैं। दो के कर्म को मैथुन कहने में कोई बाधा नहीं ।" मैथुन सेवन को मैथुन आस्रव कहते हैं । ७. परिग्रह आस्रव (गा० १० ) : चेतन अथवा अचेतन-बाह्य अथवा आभ्यन्तर द्रव्यों में मूर्च्छाभाव को परिग्रह कहते हैं। इच्छा, प्रार्थना, कामाभिलाषा, काङ्क्षा, गृद्धि, मूर्च्छा ये सब एकार्थक हैं । आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं- "गाय, भैंस, मणि और मोती आदि चेतन-अचेतन बाह्य उपधि का तथा रागादिरूप आभ्यन्तर उपधि का संरक्षण, अर्जन और संस्कार आदि रूप व्यापार मूर्च्छा है। यह स्पष्ट ही है कि बाह्मपरिग्रह के न रहने पर भी 'यह मेरा है' ऐसे संकल्प वाला पुरुष परिग्रह सहित है" । " स्वामीजी ने एक जगह कहा है- "किसी स्थान पर हीरा, पन्ना, माणिक, मोती आदि . पड़े हों तो वे किसी को डुबोते नहीं। उनसे किसी को पाप नहीं लगता। उनसे ममता नव पदार्थ १. तत्त्वा० ७.१६ सर्वार्थसिद्धि : स्त्रीपुंसयोश्चारित्रमोहोदये सति रागपरिणामाविष्टयोः परस्परस्पर्शनं प्रति इच्छा मिथुनम् । मिथुनस्य कर्म मैथुनमित्युच्यते । न सर्व कर्म... स्त्रीपुंसयो रागपरिणामनिमित्तं चेष्टितं मैथुनमिति । प्रमत्तयोगात् इत्यनुवर्तते तेन स्त्रीपुंसमिथुनविषयं रतिसुखार्थ चेष्टितं मैथुनमिति गृह्यते, न सर्वम् । तत्त्वार्थवार्तिक ७.१६.८ : २. एकस्य द्वितीयोपपत्तौ मैथुनत्वसिद्धे ३. तत्त्वा० ७.१२ भाष्य ४. सर्वार्थसिद्धि ७.१७ :
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy