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आस्त्रव पदार्थ (टाल : २) : टिप्पणी : ५-६
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प्रश्न हो सकता है-किसी बीमार बालक को बतासे में दवा रखकर कहना कि यह बतासा है, इसमें दवा नहीं है-अनृत है या नहीं ? एक मत से असत्य होने पर भी यह कथन प्रमाद के अभाव से अनृत नहीं है। स्वामीजी के अनुसार यह वचन अनृत ही है। इसमें प्रमाद का अभाव नहीं कहा जा सकता।
अनृत-झूठ बोलना मृषावाद आस्रव है। ५. अदत्तादान आस्रव (गा० ८) .
किसी की बिना दी हुई तृणवत् वस्तु का भी लेना चोरी है। चोरी करना अदत्तादान आस्रव है।
प्रश्न उठता है-ग्राम, नगर आदि में भ्रमण करते समय गली, कूचा, दरवाजा आदि में प्रवेश करने पर क्या सर्वसंयती भिक्षु बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण नहीं करता ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं-“गली, कूचा और दरवाजा आदि सबके लिए खुले होते हैं। जिन में किवाड़ आदि लगे हैं उन दरवाजों आदि में वह भिक्षु प्रवेश नहीं करता, क्योंकि वे सबके लिए खुले नहीं होते। प्रमत्त के योग से बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण करना स्तेय है। यहाँ प्रमाद नहीं। बाह्य वस्तु ली जाय या न ली जाय-जहाँ संक्लेशरूप परिणाम के साथ प्रवृत्ति होती है वहाँ स्तेय है।"
६. मैथुन आस्रव (गा० ९) .
स्त्री और पुरुष दोनों के मिथुन-भाव अथवा मिथुन-कर्म को मैथुन कहते हैं। उसका दूसरा नाम अब्रह्म है । आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं-"चारित्रमोहनीय के उदय
१. सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र पृ० ३३१ पाद टिप्पणी २ २. तत्त्वा० ७.१० भाष्य :
स्तेयबुद्धया परैरदत्तस्य परिगृहीतस्य तृणाद्रव्यजातस्यादानं स्तेयम् तत्त्वा० ७.१५ सर्वार्थसिद्धि : एवमपि भिक्षोामनगरादिषु भ्रमणकाले रथ्याद्वारादि प्रवेशाददत्तादानं प्राप्नोति ? नैष दोषः, सामान्येन मुक्तत्वात् । तथाहि-अयं भिक्षुः पिहितद्वारादिषु नं प्रविशति अमुक्तत्वात्। .... न च रथ्यादि प्रविशतः प्रमत्तयोगोऽस्ति। ... यत्र संक्लेशपरिणामेन प्रवृत्तिस्तत्र स्तेयं
भवति बाह्यवस्तुनो ग्रहणे चाग्रहणे च। ४. तत्त्वा० ७.११ भाष्य :
स्त्रीपंसयोमिथुनभावो मिथुनकर्म वा मैथुन तदब्रह्म