SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४८ नियम से हिंसा होती है और जो यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है, हिंसा हो जाने पर भी उसे बन्ध नहीं होता'।" " प्रमाद से युक्त आत्मा पहले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है उसके बाद दूसरे प्राणियों का वध हो या न हो ।" यहाँ यह विशेष रूप से ध्यान में रखने की बात है कि जो पूर्ण संयती है उसी के विषय में उपर्युक्त वाक्य सिद्धान्त रूप हैं। जो हिंसा का त्यागी नहीं अथवा हिंसा का देश त्यागी है वह अप्रमत्त नहीं कहा जा सकता । यत्नाचारपूर्वक चलने पर भी उसके शरीरादि से जीव-हिंसा हो जाने पर वह जीव-वध का भागी होगा । हिंसा करना - उसमें प्रवृत्त होना प्राणातिपात आस्रव है । ४. मृषावाद आस्रव: ( गा० ७ ) श्री उमास्वाति के अनुसार "असदभिधानमनृतम् " -असत् बोलना अनृत है । भाष्य के अनुसार असत् के तीन अर्थ होते हैं : (१) सद्भाव प्रतिषेध - इसके दो प्रकार हैं- (क) सद्भूतनिन्व - जो नहीं है उसका निषेध जैसे आत्मा नहीं है, परलोक नहीं है । (ख) अभूतोद्भावन - जो नहीं है उसका निरूपण जैसे आत्मा श्यामाक तण्डुलमात्र है, आदित्यवर्ण है आदि । (२) अर्थान्तर - भिन्न अर्थ को सूचित करना जैसे गाय को घोड़ा कहना । (३) गर्हा-हिंसा, कठोरता, पैशुन्य आदि से युक्त वचनों का व्यवहार गर्हा है। आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं- "असत् का अर्थ - अप्रशस्त भी है। अप्रशस्त का अर्थ है प्राणी-पीड़ाकारी वचन । वह सत्य हो या असत्य अनृत है ।" १. प्रवचनसार ३.१७ : नव पदार्थ मरदु व जियदु जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ।। २. स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यन्तराणान्तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः । । ३. तत्त्वा० ७.६ ४. तत्त्वा० ७.१४ सर्वार्थसिद्धि : न सदसदप्रशस्तमिति यावत प्राणिपीडाकरं यत्तदप्रशस्तं विद्यमानार्थविषय वा अविद्यमानार्थविषयं वा।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy