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________________ आस्त्रव पदार्थ (टाल : २) : टिप्पणी :३ . ४४७ __श्री उमास्वाति लिखते हैं : “प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा"-प्रमाद से युक्त होकर काय, वाक् और मनोयोग के द्वारा प्राणों का व्यपरोपण करना हिंसा है। आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं : "सकषाय अवस्था प्रमाद है। जिसके आत्म-परिणाम कषाययुक्त होते हैं वह प्रमत्त है। प्रमत्त के योग से इन्द्रियादि दस प्राणों का यथासम्भव व्यपरोपण अर्थात् वियोगीकरण हिंसा है।" श्री अकलङ्कदेव ने 'प्रमत्त' शब्द की व्याख्या इस प्रकार को है : “इन्द्रियों के प्रचार-विशेष का निश्यच न करके प्रवृत्ति करनेवाला प्रमत्त है। अथवा जैसे मदिरा पीनेवाला मदोन्मत्त होकर कार्याकार्य और वाच्यावच्य से अनभिज्ञ रहता है उसी तरह जीवस्थान, जीवोत्पत्तिस्थान और जीवाश्रयस्थान आदि को नहीं जानकर कषायोदय से हिंसा व्यापारों को ही करता है और सामान्यतया अहिंसा में प्रयत्नशील नहीं होता वह प्रमत्त है। अथवा चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रियाँ, निद्रा और प्रणय इन पन्द्रह प्रमादों से युक्त प्रमत्त है। प्रमत्त के सम्बन्ध से अथवा प्रमत्त के योग-व्यापार से होनेवाला प्राण-वियोग हिंसा है। प्रमत्तयोग विशेषण यह बतलाने के लिए है कि सब प्राणी-वियोग हिंसा नहीं है। उदाहरण स्वरूप-ईर्यासमिति से युक्त चलते हुए साधु के पैर से रास्ते में यदि कोई क्षुद्र प्राणी दब कर मर जाय तो भी उसे उस वध का पाप नहीं लगता, कारण कि वह प्रमत्त नहीं। इसीलिए कहा है-“दूसरे के प्राणों का वियोजन होने पर भी (अप्रमत्त) वध से लिप्त नहीं होता।" "जीव मरे या जीवित रहे यत्नाचार से रहित पुरुष के १. तत्त्वा० ७.८ २. वही ७.८ भाष्य ३. तत्त्वा० ७.१३ सर्वार्थसिद्धि ४. तत्त्वार्थवार्तिक ७.१३ ५. (क) उच्चालिदम्हि पादे इरियासमिदस्स णिग्गमट्ठाणे। आवादे (धे) ज्ज कुलिंगो मरेज्ज तज्जोगमासेज्ज।। न हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिदो समए। मुच्छापरिग्गहो ति य अज्झप्पमाणदो भणिदो।। (ख) भगवती ६. सिद्ध० द्वा० ३.१६ : वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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