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________________ टिप्पणियाँ १. आस्रव के विषय में विसंवाद (दो० १-५ ) : आस्रव कर्म है, अजीव है, रूपी है - इन मान्यताओं की असंगति को दिखाते हुए स्वामीजी कहते हैं (१) अगर आस्रव कर्म आने का द्वार है तो उसे कर्म कैसे कहा जा सकता है ? कर्म-द्वार और कर्म एक कैसे होंगे ? (२) आस्रव और कर्म के स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं । भिन्न-भिन्न स्वभाववाली वस्तुएँ एक कैसे होंगी ? (३) क्या एक ओर आस्रव को रूपी कहना और दूसरी ओर उसे कर्म-द्वार कहना परस्पर असंगत नहीं ? (४) योग रूपी, आस्रव-द्वार और कर्म तीनों एक साथ कैसे होंगे ? बाद में उपसंहारात्मक रूप से स्वामीजी कहते हैं जो बीस आस्रव हैं वे जीवपर्याय हैं। वे कर्म आने के द्वार हैं; कर्म नहीं। वे अरूपी हैं; रूपी नहीं । २. मिथ्यात्वादि आस्रवों की व्याख्या ( गा० १-५) : आस्रवों की संख्या-प्रतिपादक - परम्पराओं का उल्लेख करते हुए यह बताया गया था कि एक परम्परा विशेष के अनुसार आस्रवों की संख्या २० है (देखिए टि० ५ पृ० ३७२) । स्वामीजी ने गा० १ से १७ में इस परम्परा - सम्मत आस्रवों की परिभाषा देते हुए उन्हें जीव-परिणाम सिद्ध किया है। गा० ५ तक मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग की परिभाषाएँ आई हैं। इनका विस्तृत विवेचन पहले किया जा चुका है । (देखिए टि० ६ पृ० ३७३-३८० ) । ३. प्राणातिपात आस्रव ( गा० ६) : आगम में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय-ये छः प्रकार के जीव कहे गये हैं। मन, वचन, काय और कृत, कारित एवं अनुमोदन से उनके प्राणों का वियोग करना अथवा उनको किसी प्रकार का कष्ट देना हिंसा है।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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