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________________ आस्त्रव पदार्थ ( ढाल : २) १८. ५६. २०. २१. २२. २३. द्रव्य योगों को रूपी कहा गया है। वे भाव योगों के पीछे हैं। द्रव्य योगों से कर्मों का आस्रव नहीं होता, भाव योग ही आस्रव द्वार हैं । २५. अज्ञानी आस्रव को कर्म कहते हैं। उस अपेक्षा से भी वे मिथ्यादृष्टि हैं। आठ कर्मों को तो चतुःस्पर्शी कहते हैं, पर द्रव्य काय योग तो अष्टस्पर्शी हैं। ( अतः आस्रव और कर्म एक नहीं)। आस्रव को कर्म कहने वालों की श्रद्धा मूल से ही मिथ्या है। वे अपनी ही भाषा के अनजान हैं। उनके बाह्य और आभ्यन्तर दोनों नेत्र फूट चुके हैं । बीस आस्रवों में से सोलह एकांत सावद्य हैं और केवल पाप आने के मार्ग हैं। ये जीव के अशुभ और बुरे कर्त्तव्य हैं जो पाप के कर्त्ता हैं । मन, वचन और काया के योग-व्यापार और समुच्चय योग-व्यापार-ये चारों आस्रव सावद्य - निरवद्य दोनों हैं एवं पुण्य-पाप के द्वार हैं ४ | मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पाँचों ही जीव के कर्मों के कर्त्ता हैं अतः पाँचों ही आस्रव द्वार हैं । २४. इनमें पहले चार आस्रव स्वभाव से ही उदार हैं और योगास्रव में अवशेष पन्द्रह आस्रव समाए हुए हैं। योग आस्रव कर्तव्य रूप और स्वाभाविक भी है। इसलिए उसमें पन्द्रह आस्रवों का समावेश होता है। हिंसा करना योग आस्रव है। झूठ बोलना भी योग आस्रव है । इसी तरह चोरी करने से लेकर सूई - कुशाग्र- सेवन करने तक पन्द्रहों आस्रव योग आस्रव के अन्तर्गत हैं । ४३५ भावयोग आस्रव है, द्रव्ययोग नहीं कर्म चतुस्पर्शी हैं और योग अष्टस्पर्शी अतः कर्म और योग एक नहीं ( गा० १९-२० ) १६ आस्रव एकांत सावद्य योग-आस्रव और योग-व्यापार सावद्य-निरवद्य दोनों हैं २० आस्रवों का वर्गीकरण (गा० २३-२५)
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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