SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव पदार्थ : टिप्पणी २ २१ अब से मैं कोई भी पाप नहीं करूँगा।" इस प्रकार भगवान ने यावज्जीवन के लिए उत्तम सामायिक चारित्र - साधु-जीवन अंगीकार किया । इसके बाद श्रमण महावीर शरीर-ममता को त्याग बारह वर्षों तक दीर्घ तपस्या करते रहे। वे अपने रहन-सहन में बड़े संयमी थे । तप, संयम, ब्रह्मचर्य, क्षांति, त्याग, सन्तोष आदि गुणाराधन में सर्वोत्तम प्रगट करते हुए तथा उत्तम फल वाले मुक्ति-मार्ग द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरने ले । सुख-दुःख, उपकार- अपकार, जीवन-मृत्यु, आदर-अपमान सब में वे समभाव रखते थे । श्रमण महावीर न देव, मनुष्य और पशु-पक्षियों 1 के अनेक भयानक उपसर्ग अमलीन चित्त, अव्यवस्थित हृदय और अदीन भाव से सहन किये। मन, वचन और काया पर पूर्ण वियज प्राप्त की । श्रमण महावीर ने बारह वर्षों तक ऐसा ही घोर तपस्वी जीवन बिताया । तेरहवें वर्ष, ग्रीष्म ऋतु में, बैशाख सुदी १० दिन, विजय मुहूर्त में, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के योग के समय जृम्भक नामक ग्राम के बाहर, ऋजुबालिका नदी के उत्तर किनारे, श्यामाक नामक गृहस्थ के खेत में व्यावृत नामक चैत्य के ईशान कोने में शाल वृक्ष के पास, श्रमण महावीर गोदोहासन में ध्यानस्थ हुए धूप में तप कर रहे थे। उस समय वे दो दिन के निर्जल उपवासी थे। शुद्ध शुक्ल ध्यान में उनकी आत्मा लीन थी। ऐसे समय उनकी परिपूर्ण, अनन्त, निरावरण सर्वोत्तम केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हुए। इस तरह श्रमण महावीर अपने पुरुषार्थ से अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ हुए और सर्व भावदर्शी कहलाने लगे। अपने अनुपम ज्ञान से भगवान ने सर्व पदार्थों के स्वरूप को जानकर जन कल्याण और प्राणी हित के लिये उत्तम संयम धर्म का प्रकाश किया। भगवान् जैनियो के २४ वें तीर्थंकर हुए और इस अर्थ में जैन-धर्म के अन्तिम प्ररूपक और उद्योतक हुए। इसी कारण उन्हें जिन शासन का अधिपति कहा गया है। २. गणधर गौतम भगवान महावीर के संघ में १४००० साधु थे। भगवान ने इन साधुओं के गणों में-समूहों मे बाँट दिया था, और उनके संचालन का भार अपने ग्याहर प्रधान शिष्यों को दिया था। गण-संचालक होने से ये शिष्य गणधर कहलाते थे । इन्द्र-भूति गौतम भगवान महावीर के प्रमुख्य शिष्य और उनके ग्यारह गणधरों में प्रधान थे। वे जाति के ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम वसुभूति और माता का नाम पृथिवी था। उनकी जन्मभूमि राजगृह 1 · के नजदीक ही थी। वे वेदों के बहुत बड़े विद्वान थे। उनकी शिष्य-मण्डली बहुत बड़ी
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy