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________________ ४१४ "मंडिक ! प्रयत्न भले ही क्रिया न हो पर जो आकाश की तरह निष्क्रिय होता है उसमें प्रयत्न भी संभव नहीं होता । वस्तुतः प्रयत्न भी क्रिया ही है । यदि प्रयत्न क्रिया नहीं है तो फिर अमूर्त देह-परिस्पन्द में किस हेतु के कारण होता है ?" "प्रयत्न को दूसरे किसी हेतु की अपेक्षा नहीं, वह स्वतः ही देह - परिस्पन्द में निमित्त बनता है ।" "मंडिक ! तो फिर स्वतः आत्मा से ही देह - परिस्पन्द क्यों नहीं मानते व्यर्थ प्रयत्न को क्यों बीच में लाते हो ?" "देह-परिस्पन्द में कोई अदृष्ट कारण मानना चाहिए कारण आत्मा अक्रिय है।" "मंडिक ! यह अदृष्ट कारण मूर्त होना चाहिए या अमूर्त ? यदि अमूर्त होना चाहिए तो फिर आत्मा देह-परिस्पन्द का कारण क्यों नहीं हो सकता ? वह भी तो अमूर्त है । यदि अदृष्ट कारण मूर्त ही होना चाहिए तो वह कार्मण देह ही संभव है, अन्य नहीं । उस कार्मण शरीर में परिस्पन्द होगा तभी वह बाह्य शरीर के परिस्पन्द में कारण बन सकेगा । फिर प्रश्न होगा कार्मण शरीर के परिस्पन्द में क्या कारण है ? इस तरह प्रश्न की परम्परा का कोई अन्त नहीं आ सकेगा।" १. "मंडिक ! शरीर में जिस प्रकार का प्रतिनियत विशिष्ट परिस्पन्द देखा जाता है। वह स्वाभाविक भी नहीं माना जा सकता। 'जो वस्तु स्वाभाविक होती है और अन्य किसी कारण की अपेक्षा न रखती हो वह वस्तु सदैव होती है अथवा कभी नहीं होती" - इस न्याय से शरीर में जो परिस्पन्द होता है यदि वह स्वाभाविक है तो सदा एक-सा होना चाहिए । परन्तु वस्तुतः शरीर की चेष्टा नाना प्रकार की होने से अमुक रूप से नियत ही देखी जाती है इसलिए उसे स्वाभाविक नहीं माना जा सकता । अतः कर्म- सहित आत्मा को ही शरीर की प्रतिनियत विशिष्ट क्रिया में कारण मानना चाहिए। अतः आत्मा सक्रिय है ।" उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दर्शन में संसारी आत्मा को सकंप माना जाता है । आगम में इस विषय में अनेक संवाद उपलब्ध हैं, जिनमें से एक यहाँ दिया जाता है : २. नव पदार्थ e विशेषावश्यक भाष्य गा० १८४५-४८ : (ख) गणधरवाद पृ० ११४ -११६ (क) भगवती २५.४ (ख) ३.३ (ग) १७.३ "
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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