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________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ३७ ४१५ “भन्ते ! जीव सकंप होता है या निष्कंप ?" “गौतम ! जीव सकंप भी है और निष्कंप भी। जीव दो प्रकार के हैं(१) संसार-समापन्न और (२) असंसारसमापन्न-मुक्त । मुक्त जीव दो प्रकार के होते हैं-(१) अनन्तर सिद्ध' और (२) परंपर सिद्ध। इनमें जो परंपर सिद्ध होते हैं वे निष्कंप होते हैं और जो जीव अनन्तर सिद्ध हैं वे सकंप होते हैं। जो संसारी-जीव हैं वे भी दो प्रकार के होते हैं--(१) शैलेशी और (२) अशैलेशी! शैलेशी जीव निष्कंप होते हैं और अशैलेशी सकंप। "भन्ते ! जो जीव शैलेशी अवस्था को प्राप्त नहीं हैं वे अंशतः सकंप हैं या सर्वांशतः सकंप?" "हे गौतम ! वे अंशतः सकंप हैं और सर्वांशतः भी सकंप हैं।" आत्मा की इस सकंप अवस्था को ही योग कहते हैं और यही योग आस्रव है। आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं-"आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्द-हलन-चलन योग है। वह निमित्तों के भेद से तीन प्रकार का है-काययोग, वचनयोग और मनोयोग । खुलासा इस प्रकार है-वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम के होने पर औदारिक आदि सात प्रकार की काय-वर्गणाओं में से किसी एक प्रकार की वर्गणाओं के आलम्बन से होने वाला आत्म-प्रदेश-परिस्पन्द काययोग कहलाता है। शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई वचन-वर्गणाओं का आलम्बन होने पर तथा वीर्यान्तराय और मत्यक्षरादि आवरण के क्षयोपशम से प्राप्त हुई भीतरी वचनलब्धि के मिलने पर वचनरूप पर्याय के सन्मुख हुए आत्मा के होने वाला प्रदेश-परिस्पन्द वचनयोग कहलाता है। वीर्यान्तराय और नो-इन्द्रियावरण के क्षयोपशमरूप आन्तरिक मनोलब्धि के होने पर तथा बाहरी निमित्त भूत मनोवर्गणाओं का आलम्बन मिलने पर मनरूप पर्याय के सन्मुख हुए आत्मा के होनेवाला प्रदेश-परिस्पन्द मनोयोग कहलाता है। वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयोग केवली के जो तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्म-प्रदेश-परिस्पन्द होता है वह भी योग है, ऐसा जानना चाहिए। स्वामीजी ने अन्यत्र लिखा है : "अन्तराय कर्म के क्षयोपशम होने से क्षयोपशम वीर्य उत्पन्न होता है और अन्तराय कर्म के क्षय होने से क्षायक वीर्य उत्पन्न होता है। इस वीर्य के प्रदेश तो लब्धवीर्य हैं। १. सिद्धत्व-प्राप्ति के प्रथम समय में स्थित।। २. सिद्धत्व-प्राप्ति के प्रथम समय के बाद के समयों में स्थित। ३. सिद्धिगमन-समय और सिद्धत्व-प्राप्ति का समय एक ही होने से और सिद्धिगमन के समय गगनक्रिया होने से ये सकंप कहे गये हैं। ४. ध्यान द्वारा शैल जैसी निष्कंप अवस्था को प्राप्त । ५. तत्त्वा० ६.१ सर्वार्थसिद्धि
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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