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________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ३४ ४११ प्रशस्त अध्यवसाय शुभ कर्मों के निमित्त हैं और अप्रशस्त अशुभ कर्मों के । इस तरह अध्यवसाय कर्मों के हेतु-आस्रव हैं। अध्यवसाय का अर्थ अन्तःकरण, मनसंकल्प' आदि मिलते हैं। इससे अध्यवसाय जीव-परिणाम ठहरते हैं। जैसे अध्यवसाय-आस्रव जीव-परिणाम है वैसे ही अन्य आस्रव भी जीव-परिणाम हैं अतः जीव हैं। ३४. ध्यान जीव के परिणाम हैं (गा० ४६) : ध्यान चार हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान' । इनमें आर्त और रौद्र ये दो ध्यान वर्ण्य हैं और धर्म और शुक्ल ध्यान आदरणीय । आर्त और रौद्र ध्यान से पापों का आगमन होता है। कहा है-"चार ध्यानों में धर्म और शुक्ल ये दो ध्यान मोक्ष के हेतु हैं और आर्त और रौद्र ये दो ध्यान संसार के । किसी प्रकार के अनिष्ट संयोग या अनिष्ट वेदना के उपस्थित होने पर उसका शीघ्र वियोग हो इस प्रकार का पुनः-पुनः चिन्तन; इष्ट संयोग के न होने पर अथवा उसके वियोग होने पर उसकी बार-बार कामना रूप चिन्तन और निदान-विषय सुखों की कामना आर्तध्यान है। हिंसा, झूठ, चोरी, विषय-संरक्षण आदि का ध्यान रौद्रध्यान कहलाता है। स्वामीजी कहते हैं : आर्त और रौद्र ध्यान पाप कर्म के हेतु हैं। ध्यान जीव के ही होता है। अतः आर्त और रौद्र ध्यान रूप आस्रव जीव के होते हैं और जीव हैं।" १. (क) प्रज्ञा० ३४ टीका (ख) नि० चू० १० : मणसंकप्पेत्ति वा अज्झावसाणं ति वा एगट्ठा २. (क) ठाणाङ्ग सू० २४७ (ख) समवायाङ्ग सम० ४ ३. उत्त० ३०.३५ : अट्ठरुदाणि वज्जित्ता झााएज्जा सुसमाहिए। धम्मसुक्काइं झाणाइं झाणं तं तु बुहावए।। ४. तत्त्वा० ६.३० भाष्य : तेषां चतुर्णां ध्यानानां परे धर्म्य-शुक्ले मोक्षहेतू भवतः । पूर्वे त्वार्तरौद्रे संसारहेतु इति।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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