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________________ ४१० यहाँ 'छसुं अविरओ' - कहते हुए छ: काय की हिंसा की अविरति को भी कृष्णलेश्या का परिणाम कहा है। चूंकि भाव कृष्णलेश्या अरूपी है अतः अविरति आस्रव भी अरूपी 1 नव पदार्थ अवचूरिकार कहते हैं- " एतेन पञ्चाश्रव प्रवृत्तत्वादीनां भावकृष्ण लेश्यायाः सद्भावोपदर्शनादासां लक्षणयुक्तं योहि यत्सद्भाव एव स्यात् स तस्य लक्षणम् ।" 'पञ्चास्रवप्रवृत्त' आदि द्वारा सद्भाव भावलेश्या के लक्षण कहे हैं। जिससे जिसका सद्भाव है वह उसका लक्षण होता है। भगवती के उपर्युक्त पाठ में छः भावलेश्याओं को अरूपी कहा हैं और यहाँ पंचास्रवों को कृष्ण भावलेश्या का लक्षण कहा है। इससे पाँच आस्रव भी अरूपी हैं। यदि भावलेश्या अरूपी है तो उसके लक्षण रूपी कैसे होंगे ? ३१. जीव के लक्षण अजीव नहीं हो सकते ( गा० ४३ ) : 1 वस्तु लक्षणों से पहचानी जाती है। लक्षण वस्तु के तदनुरूप होते हैं । जीव के लक्षण जीव रूप होते हैं और अजीव के लक्षण अजीव रूप । श्या को जीव- परिणाम कहा है। आस्रव को लेश्या का लक्षण-परिणाम कहा है। लेश्या जीव- परिणाम है; जीव है अतः आस्रव भी जीव है । ३२. संज्ञाएँ अरूपी हैं अत: आस्रव अरूपी हैं ( गा० ४४ ) : भगवती (१२.५) में कहा है : " . आहारसन्ना जाव - परिग्गहसन्ना - एयाणि अवन्नाणि । " संज्ञाएँ चार हैं- आहार, भय, मैथुन और परिग्रह' । ये चारों अवर्ण हैं। संज्ञाएँ कर्म-बंध की हेतु हैं । कर्म-बंध की हेतु संज्ञाएँ अरूपी हैं अतः कर्म-बंध के हेतु मिथ्यात्व आदि अन्य आस्रव भी अरूपी हैं। I ३३. अध्यवसाय आस्रव रूप हैं ( गा०० ४५ ) : स्वामीजी ने जो अध्यवसाय के दो प्रकार कहे हैं - (१) प्रशस्त और (२) अप्रशस्त उसका आगमिक आधार प्रज्ञापना का निम्न पाठ है : "नेरइयाणं भंते केवतिया अज्झवसाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पन्नत्ता । ते णं भंते! किं पसत्थ अपसस्त्था ? गोयमा ! पसत्थावि अपसत्थावि, एवं जाव वैमाणियाणं ।" (पद० ३४ ) १. (क.) ठाणाङ्ग ३५६ (ख) समवायाङ्ग सम० ४
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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