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________________ ४०२ नव पदार्थ प्रश्न है चेतन-जीव और जड़-पुद्गल का परस्पर सम्बन्ध कैसे होता है ? इसका उत्तर आचार्य कुन्दकुन्द ने बड़े सुन्दर ढंग से दिया है। वे कहते हैं : "उदय में आए हुए कर्मों का अनुभव करता हुआ जीव जैसे भाव - परिणाम करता है उन भावों का वह कर्त्ता है। कर्म बिना जीव के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमिक भाव नहीं हो सकते क्योंकि कर्म ही न हो तो उदय आदि किसके हों ? अतः उदय आदि चारों भाव कर्मकृत हैं। प्रश्न हो सकता है यदि ये भाव कर्मकृत हैं तो जीव उनका कर्त्ता कैसे है ? इसका उत्तर यह है कि भाव, कर्म के निमित्त उत्पन्न हैं और कर्म, भावों के निमित्तसे । जीव के भाव कर्मों के उपादान कारण नहीं और न कर्म भावों के उपादान कारण हैं। स्वभाव को करता हुआ आत्मा अपने ही भावों का कर्त्ता है, निश्चय ही पुद्गल कर्मों का नहीं। कर्म भी स्वभाव से स्वभाव का ही कर्त्ता है आत्मा का नहीं। प्रश्न हो सकता है यदि कर्म कर्म-भाव को करता है और आत्मा आत्म-भाव को तब आत्मा कर्म-फल को कैसे भोगता है और कर्म अपना फ़ल कैसे देते हैं ? इसका उत्तर इस प्रकार है- सारा लोक सब जगह अनन्तानन्त सूक्ष्म- बादर विविध पुद्गलकायों द्वारा खचाखच भरा हुआ है। जब आत्मा स्व भाव को करता है तब वहाँ रहे हुए अन्योन्यावगाढ़ पुद्गल स्वभाव से कर्मभाव को प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार पुद्गलद्रव्यों की अन्य द्वारा अकृत बहु प्रकार की स्कंध - परिणति देखी जाती है उसी प्रकार कर्मों की विचित्रता भी जानो । जीव और पुद्गलकाय अन्योन्य अवगाढ़ मिलाप से बंधते हैं। बंधे हुए पुद्गल उदय काल में अपना रस देकर बिखरते हैं तब साता-असाता देते हैं और जीव उन्हें भोगता है। इस तरह जीव के भावों से संयुक्त होकर कर्म अपने परिणामों का कर्त्ता है। और जीव अपने चेतनात्मक भावों से कर्मफल का भोक्ता है । * इसी बात को उन्होंने अन्यत्र इस प्रकार समझाया है - "आत्मा उपयोगमय है । उपयोग ज्ञान और दर्शन रूप है। ज्ञान-दर्शनरूप आत्म-उपयोग ही शुभ अथवा अशुभ होता है। जब जीव का उपयोग शुभ होता है तब पुण्य का संचय होता है और अशुभ होता है तब पाप का । दोनों के अभाव में परद्रव्य का संचय नहीं होता' ।" "लोक सब जगह सूक्ष्म १. पञ्चास्तिकाय १.५७-६८ २. प्रवचनसार २.६३-६४
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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