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________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी २२ ४०३ और बादर आत्मा के ग्रहणं योग्य अथवा अग्रहण योग्य ऐसे पुदगलकायों से अत्यन्त अवगाढ़ रूप से भरा हुआ है। जीव की भाव-परिणति को पाकर कर्मरूप होने योग्य पुद्गल-स्कंध आठ कर्मरूप भाव-परिणाम को प्राप्त होते हैं।" संसारी जीव अनन्त काल से कर्म-बद्ध है। उन कर्मों की उदय, उपशमं आदि अवस्थाएँ होती हैं जिससे जीव में नाना प्रकार के भाव-परिणाम उत्पन्न होते हैं। जैसे मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद आदि । जब जीव कर्मों के उदय से उत्पन्न मिथ्यात्वादि भावों में प्रवर्तन करता है तब पुनः नये कर्मों का बंध होता है। जब इनमें प्रवर्तन नहीं करता तब कर्म नहीं होते । अर्थात् आत्मा कर्म करता है तभी कर्म होते हैं; नहीं करता तब कर्म नहीं होते। इससे आत्मा कर्मों का कर्ता सिद्ध होता है। उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि (१) जीव कर्मों को ग्रहण करता है, इसलिए वह कर्मों का कर्ता है। जीव कर्मों का उपादान कारण नहीं प्रेरक कारण है और (२) जीव कर्मों को ग्रहण अपने भावों के निमित्त से करता है। जीव के शुभ-अशुभ भाव ही कर्मग्रहण के हेतु हैं। स्वामीजी कहते हैं-"वे ही भाव जिनसे जीव कर्मों का कर्ता कहलाता है आस्रव हैं। जिस तरह आस्रवणी नौका का छिद्र नौका से भिन्न नहीं और मकान का द्वार मकान से भिन्न नहीं वैसे ही मिथ्यात्व आदि आस्रव जीव से भिन्न नहीं; जीव स्वरूप हैं-जीव हैं। जिस तरह सलिलवाही-द्वार द्वारा तालाब में जल आता है उसी तरह मिथ्यात्व आदि आस्रवों द्वारा जीव से कर्मों का संचय होता है। तालाब के स्रोत तालाब से भिन्न नहीं वैसे ही आस्रव जीव से भिन्न नहीं; जीवरूप हैं। जीव जब इन परिणामों में वर्तन करता है तब उनके प्रभाव से क्षेत्रस्थ कर्म-वर्गणा के परमाणु आत्मा के प्रदेशों में प्रवेश करते हैं। जीव के मिथ्यात्व, अविरति आदि भावों को ही आस्रव कहते हैं। जीव के इन भावों द्वारा जो अजीव पुद्गल द्रव्य आत्मा के साथ संसर्ग में आ उसे बंधनबद्ध करते हैं, वे कर्म कहलाते हैं। जीव के मिथ्यात्व, कषाय आदि भाव, आस्रव हैं। कर्म उनके फल । आस्रव कारण हैं और कर्म कार्य । जीव ही अपने भावों से कर्मों को ग्रहण करता है। उसके भाव ही आस्रव हैं । जीव के भाव उसके स्वरूप से भिन्न नहीं हो सकते अतः आस्रव जीव है। १. प्रवचनसार २.७६-७७ २. इस सम्बन्ध में विशेष विवेचन के लिए देखिए पृ० ३३ टि० ७ (१५)
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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