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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी २१-२२
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२१. आस्रव जीव-परिणाम है अत: जीव है (गा० २५) :
स्वामीजी ने गा० १ में आस्रव के सामान्य स्वरूप, गा० २ में आस्रव के पाँच भेद, गा० ३ से ८ में पाँचों आस्रवों की विलक्षणता तथा गा० ६ से २३ में आस्रव पदार्थ सम्बन्धी आगम-संदर्भो पर प्रकाश डाला है। इस प्रतिपादन के बाद अब यहाँ स्वामीजी ढाल के मूल प्रतिपाद्य विषय-आस्रव जीव है या अजीव ?-का विवेचन करना चाहते हैं। उनका कथन है-"आस्रव पदार्थ जीव है। उसको अजीव मानना विपरीत श्रद्धान है" (दो० २, ३, गा० २४)।
स्वामीजी ने दो० ४ में कहा है-"आस्रव निश्चय ही जीव है। सिद्धान्त में आस्रव को जगह-जगह जीव कहा है।
अब स्वामीजी इसी बात को प्रमाणित करने के लिए अग्रसर होते हैं।
स्वामीजी गा० २४ तक के विवेचन में स्थान-स्थान पर यह कहते हुए आये हैं कि आस्रव जीव का परिणाम है अतः वह जीव है; अजीव नहीं हो सकता । प्रस्तुत गाथा में जीव, आस्रव और कर्म का परस्पर सम्बन्ध बतलाते हुए इसी दलील से आस्रव को जीव सिद्ध करते हैं। जीव चेतन-पदार्थ है। कर्म जड़-पुद्गल । आत्म-प्रदेशों में कर्म को ग्रहण करने वाला पदार्थ जीव-द्रव्य है। कर्म जिस निमित्त से आत्म-प्रदेशों में प्रवेश करते हैं वह आस्रव-पदार्थ है। आस्रव के पाँच भेद हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। ये क्रमशः जीव के मिथ्यात्वरूप, अविरतिरूप, प्रमादरूप, कषायरूप और योगरूप परिणाम हैं। कर्म जीव के इन परिणामों से आते हैं। इस तरह जीव के मिथ्यात्व आदि परिणाम ही आस्रव हैं। जीव के परिणाम जीव से भिन्न स्वरूप वाले नहीं हो सकते हैं अतः आस्रव पदार्थ जीव है। २२. जीव अपने परिणामों से कर्मों का कर्ता है अत: जीव-परिणाम स्वरूप
आस्रव जीव है (गा० २६-२७) :
लोक में छः द्रव्य हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव । धर्म, अधर्म और आकाश समूचे लोक में व्याप्त होने से वे जीव में भी व्याप्त हैं पर उनका जीव के साथ वैसा संयोग नहीं जैसा पुद्गल का है। धर्म आदि का सम्बन्ध स्पर्श रूप है जबकि पुद्गल का सम्बन्ध बंधन रूप। इस तरह जीव और पुद्गल दो ही पदार्थ ऐसे हैं जो परस्पर आबद्ध हो सकते हैं। पुद्गल के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ नहीं जो जीव के साथ आबद्ध हो सके।