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________________ ४०० नव पदार्थ "भिन्न-भिन्न मान्यता के अनुसार आस्रव की परिभाषाएँ भी भिन्नता को लिए हुए जो आस्रव को अजीव मानते हैं उनकी परिभाषा है : "द्रव्याश्रवो यज्जलान्तर्गतनावादौ तथाविधच्छिद्रेर्जलप्रवेशनं भावाश्रवस्तु यज्जीवनावीन्द्रियादिच्छिद्रतः कर्मजलसञ्चय"-जलान्तर्गत नौका में तथा विध छिद्रों द्वारा जल का प्रवेश द्रव्यास्रव है। जीव रूपी नौका में इन्द्रियादि छिद्रों द्वारा कर्म-जल का सञ्चय भावास्रव है। इस परिभाषा के अनुसार कर्मादान आस्रव है। जो आस्रव को जीव-अजीव का परिणाम मानते हैं उनकी परिभाषा है : "मोहरागद्वेषपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानाञ्चास्रवः"-मोह-राग-द्वेष रूप जीव के परिणामों के निमित्त से मन-वचन-काय रूप योगों द्वारा पुद्गल कर्म वर्गणाओं का जो आगमन है वह आस्रव है। ___ इस परिभाषा के अनुसार मोह-राग-द्वेष परिणाम भावास्रव हैं और उनसे होनेवाला कर्मादान द्रव्यास्रव। जो आस्रव को जीव मानते हैं उनकी परिभाषा है : भवममणहेउ कम्मं, जीवो अणुसमयमासवइ जत्तो। सो आसवो त्ति तस्स उ, बायालीस भवे भेया ।। .-जिसके द्वारा जीव भव-भ्रमण के हेतु कर्म का प्रति समय आस्रवण करता है वह आस्रव है। इस परिभाषा से कर्मादान के हेतु आस्रव हैं। स्वामीजी आस्रव को जीव मानते हैं। उनकी दृष्टि से तीसरी परिभाषा ही आगमिक स्वामीजी आगे चल कर इसी ढाल में सिद्ध करेंगे कि आस्रव जीव कैसे है। १. ठाणाङ्ग १.१३ टीका २. पञ्चास्तिकाय २.१०८ अमृतचन्द्र टीका ३. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रहः नवतत्त्वप्रकरण गा० ३३
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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