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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी २०
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पुद्गल के संयोग से उत्पन्न हैं'। ऐसा मानने से उपर्युक्त प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता
श्री सिद्धसेन गणि लिखते हैं : “सात पदार्थों में प्रकृततः जीव और अंजीव द्रव्य और भाव से स्थिति-उत्पत्ति-प्रलय स्वभाववाले कहे गये हैं...वस्तुतः चेतन अचेतन लक्षणयुक्त जीव और अजीव ये दो ही सद्भाव पदार्थ हैं। आस्रव यदि जीव अथवा जीव पर्याय है तो वह सर्वथा जीव ही है। यदि वह अजीव अथवा अजीव पर्याय है तो सर्वथा अजीव ही है। चेतन अचेतन को छोड़कर अन्य पदार्थ नहीं है। अतः आस्रव क्या है ? यह प्रश्न है। ....आस्रव क्रिया विशेष है। वह आत्मा और शरीर आदि के आश्रित है अतः केवल जीव अथवा जीव-पर्याय नहीं है। वह केवल अजीव अथवा अजीव-पर्याय भी नहीं कारण कि वह आत्मा और शरीर दोनों के आश्रित है।"
दिगम्बर आचार्यों ने पुण्य आदि पदार्थों के द्रव्य और भाव इस तरह से दो-दो भेद किये हैं। संक्षेप में उनका कथन है : “जीव का शुभ परिणाम भावपुण्य है, उसके निमित्त से उत्पन्न सवेंदनीय आदि शुभ प्रकृतिरूप पुद्गलपरमाणुपिण्ड द्रव्यपुण्य है। मिथ्यात्वरागादिरूप जीव का अशुभ परिणाम भावपाप है; उसके निमित्त से उत्पन्न असवेदनीय आदि अशुभ प्रकृति रूप पुद्गलपिण्ड द्रव्यपाप है। रागद्वेष मोहरूप जीव-परिणाम भावास्रव है; भावास्रव के निमित्त से कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गलों का योगद्वार से आगमन द्रव्यास्रव है। कर्म-निरोध में समर्थ निर्विकल्पक आत्मलब्धि रूप परिणाम भावसंवर है; उस भावसंवर के निमित्त से नये द्रव्य कर्मों के आगमन का निरोध द्रव्यसंवर है। कर्मशक्ति को दूर करने में समर्थ बारह प्रकार के तप से वृद्धिगत संवर युक्त शुद्धोपयोग भाव निर्जरा है; उस शुद्धोपयोग से नीरस हुए चिरंतन कर्मों का एक देश गलन-अंशतः दूर होना द्रव्यनिर्जरा है। प्रकृति आदि बंध से शून्य परमात्मपदार्थ से प्रतिकूल मिथ्यात्वराग़ादि से स्निग्ध परिणाम भावबन्ध है; भावबन्ध के निमित्त से तैल लगे हुए शरीर के धूलि-लेप की तरह जीव और कर्म प्रदेशों का परस्पर संश्लेष
१. पञ्चास्तिकाय २.१०८ अमृतचन्द्रीय टीका :
इमौ हि जीवाजीवौ पृथग्भूताऽस्तित्वर्निवृत्तत्वेन भिन्नस्वभावभूतौ मूलपदार्थौ ।
जीवपुद्गलसंयोगपरिणामनिवृत्ताः सप्ताऽन्ये च पदार्थाः । २. तत्त्वा० अ० ६ उपोद्घात-भाष्य की सिद्धसेन टीका