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________________ आस्त्रव पदार्थ ( ढाल : १) : टिप्पणी १६ ३६५ प्राणातिपातादि का संवरण- निरुंधन होता है वह संवर है। संवर अर्थात् आस्रव निरोध' । टीका में आस्रव का वही स्वरूप प्रतिपादित है जो स्वामीजी ने बताया है। टीकाकार ने संवर की जो परिभाषा दी है वह इसे और भी स्पष्ट कर देती है । २. उत्तराध्ययन सूत्र के २६ वें अध्ययन का ३७ वाँ प्रश्नोत्तर योगप्रत्याख्यान सम्बन्धी है। वहाँ कहा है- " योगप्रत्याख्यान से जीव अयोगीपन प्राप्त करता है। अयोगी जीव नये कर्मों का बंध नहीं करता और पूर्वबद्ध कर्मों से निर्जरा करता है ।" बाद के ५३, ५४ और ५५ वें बोलों में मनोगुप्ति आदि के फल इस प्रकार बतलाये हैं : "मनोगुप्ति से जीव एकाग्रता उत्पन्न करता है। मनोगुप्त जीव एकाग्रचित्त से संयम का आराधक होता है। वचनगुप्ति से जीव निर्विकारिता को उत्पन्न करता है। वचन- गुप्त जीव निर्विकारिता से अध्यात्मयोग की साधना वाला होता है। कायगुप्ति से जीव संवर उत्पन्न करता है । कायगुप्त जीव संवर से पापास्रवों का निरोध करता है ।" इस वार्तालाप में प्रकारान्तर से मन, वचन और काय के निरोध का ही उपदेश है । मन, वचन और काय - ये तीनों योग आस्रव रूप हैं। उनसे कर्म आते हैं। कर्मों का आगमन आत्मा के हित के लिए नहीं होता, इसीलिए योग-निरोध का उपदेश है। ३. उत्तराध्ययन अ० २३ में केशी और गौतम का एक सुन्दर वार्तालाप मिलता है : केश बोले : "गौतम ! महाप्रवाह वाले समुद्र में विपरीत जाने वाली नौका में आप आरुढ़ हैं। इससे आप कैसे उस पार पहुँच सकेंगे ?" गौतम बोले : "जो नौका आस्रवणी होती है वह पार नहीं पहुँचाती । जो नौका अनास्रवणी होती है-छिद्र रहित होती है अर्थात् जल का संग्रह करने वाली नहीं होती वह पार पहुँचा देती है । " १. ठाणाङ्ग १.१३ टीका : आश्रवन्ति - प्रविशन्ति येन कर्म्माण्यात्मनीत्याश्रवः, कर्म्मबन्धहेतुरिति भावः...... संवियते - कर्मकारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः, आश्रवनिरोध इत्यर्थः
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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