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________________ आस्त्रव पदार्थ (टाल : १) : टिप्पणी ६ ३७६ गुणस्थान से आगे नहीं जाता पर क्रोधादि के उदय से आत्म-प्रदेशों में जो उष्णता का भाव विद्यमान रहता है वह कषाय आस्रव है । ग्यारहवें गुणस्थान में क्रोधादि का उपशम हो जाने से जब उदय का कर्तव्य दूर हो जाता है तब अकषाय संवर होता है। ___ यदि कोई कहे कि कषाय और अविरति में कोई अन्तर नहीं क्योंकि दोनों ही हिंसादि के परिणाम रूप हैं तो यह कहना अनुचित होगा। श्री अकलङ्कदेव कहते हैं "दोनों को एक मानना ठीक नहीं क्योंकि दोनों में कार्य-कारण का भेद है। कषाय कारण है और प्राणातिपात आदि अविरति कार्य है'। कषाय आस्रव का प्रतिपक्षी अकषाय संवर है। कषाय से कर्म आते हैं। संवर से रुकते हैं। . ५. योग आस्रव : मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति को योग कहते हैं। मन, वचन और काय से कृत, कारित और अनुमति रूप प्रवृत्ति योग है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय आस्रव प्रवृत्ति रूप नहीं भाव रूप हैं, योग प्रवृत्ति रूप है। योग से आत्म-प्रदेशों में स्पन्दन होता है, मिथ्यात्व आदि में वैसी बात नहीं। मन-वचन-काय के कर्म शुभ और अशुभ दो तरह के होते हैं । अशुभ कर्म योगास्रव के अन्तर्गत आते हैं और उनसे पाप का आस्रव होता है। शुभयोग निर्जरा के हेतु हैं। उनसे कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरा के साथ-साथ पुण्य का आस्रव होता है। इस दृष्टि से निर्जरा के हेतु शुभ योगों को भी योगास्रव में समझा जाता है। श्री जयाचार्य लिखते शुभ योगां ने सोय रे, कहिये आश्रव निर्जरा। तास न्याय अवलोय रे, चित्त लगाई सांभलो ।। शुभ जोगां करी तास रे, कर्म कटे तिण कारणे। कही निर्जरा जास रे, करणी लेखे जाणवी ।। ते शुभ जोग करीज रे, पुण्य बंधे तिण कारणे। आश्रव जास कहीज रे, वारुं न्याय विचारिये।। १. तत्त्वार्थवार्तिक ८.१.३३ : कषायऽविरत्योरभेद इति चेत्, न; कार्यकारणभेदोपपत्ते। ...कारणभूताहि कषायाः कार्यात्मिकाया हिंसाद्यविरतेरर्थान्तरभूता इति।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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