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________________ ३७८ - . नव पदार्थ प्रमाद जीव का परिणाम है। प्रमाद का रूंधन करने से अप्रमाद होता है। प्रमाद । आस्रव है। अप्रमाद संवर । अप्रमाद-संवर प्रमाद-आस्रव को अवरुद्ध करता है। ४. कषाय आस्रव : जीव के क्रोधादि रूप परिणाम को कषाय आस्रव कहते हैं। क्रोधादि करना कषाय आस्रव नहीं है। क्रोधादि करना योगों की प्रवृत्ति रूप होने से योग आस्रव में आता है। इस विषय में श्री जयाचार्य का निम्न विवेचन द्रष्टव्य है। क्रोध स्यूं बिगड्या प्रदेश में जी, ते आस्रव कहये कषाय। आय लागै तिके अशुभ कर्म छै जी, बुद्धिवंत जाणै न्याय ।। उदेरी क्रोध करै तसुजी, अशुभ योग कहिवाय । निरंतर बिगड्या प्रदेश ने जी, काहेये आस्रव कषाय ! । नवमे अष्टम गुणठाण छै जी, शुभ लेश्या शुभ जोग। पिण क्रोधादिक स्यूं बिगड़या प्रदेश ने जी, कषाय आस्रव प्रयोग।। लाल लोह तप्त अगनी थकी जी, काढ्या संडासा स्यूं बार। थोड़ी बेल्यां स्यूं लालपणो मिट्योजी, तातपणो रह्यो लार ।। ते लोह श्याम वर्ण थयो जी, पिण ते तप्तपणा ने प्रभाव । रूइरो फूवो म्हेलै ऊपरे जी, ते भस्म होवै ते प्रस्ताव ।। तिम लालपणो अशुभ योग नो, नहीं सातमा थी आगे ताहि । ते पिण क्रोधादिक ना उदय थकी जी, तप्त रूप ज्यू आस्रव कषाय।। क्रोध मान माया लोभ सर्वथा जी, उपशमाया इग्यारमें गुण ठाण। उदय नो किरतब मिट गयो जी, जब अकषाय संवर जाण'।। इसका भावार्थ है-'जो उदीर कर क्रोध करता है उसके अशुभ योग होता है। प्रदेशों का निरंतर कषाय-कलुषित होना कषाय आस्रव है। नवें, आठवें गुणस्थान में शुभ लेश्या और शुभ योग होते हैं पर वहाँ कषाय आस्रव कहा गया है। इसका कारण क्रोधादि से कलुषित आत्म-प्रदेश हैं। अग्नि में तपते हुए लाल लोहे को यदि संडास से बाहर निकाल लिया जाता है तो कुछ समय बाद उसकी ललाई तो दूर हो जाती है पर उष्णता बनी ही रहती है। लोहे के पुनः श्याम वर्ण हो जाने पर भी उस पर रखा हुआ रूई का फूहा उष्णता के कारण तुरन्त भस्म हो जाता है। उसी तरह क्रोधादि योगों का रक्तभाव सातवें - १. झीणीचर्चा ढा० २२.११-१७, २७
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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