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आस्त्रव पदार्थ ( ढाल : १) टिप्पणी ६
प्रमाद के भेदों पर विचार करते हुए उन्होंने लिखा है "शुद्धयष्टक और उत्तम क्षमा आदि विषयक भेद से प्रमाद अनेक प्रकार का है ।" श्री अकलङ्कदेव ने इसी बात को पल्लवित करते हुए लिखा है: "भाव, काय, विनय, ईर्यापथ, भैक्ष्य, शयन, आसन, प्रतिष्ठापन और वाक्यशुद्धि आत्मक आठ संयम तथा उत्तम क्षमा, मार्दव, शौच, सत्य, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य आदि इन दस धर्मों में अनुत्साह या अनादर का भाव प्रमाद है । इस तरह यह प्रमाद अनेक प्रकार का है ।"
आचार्य उमास्वाति ने कुशल में अनादर के साथ-साथ 'स्मृति- अनवस्थान' और 'योग-दुष्प्रणिधान' को भी प्रमाद का अङ्ग माना है। योगों की दुष्प्रवृत्ति क्रिया रूप होने से प्रमादास्रव में उसका समावेश उचित नहीं लगता; क्योंकि इससे प्रमादास्रव और योगास्रव में भेद नहीं रह पाता ।
मद, निद्रा, विषय, कषाय, विकथादि को भी प्रमाद कहा जाता है । पर यहाँ प्रमाद का अर्थ आत्म-प्रदेशवर्ती अनुत्साह है; मद, निद्रा, आदि नहीं। क्योंकि क्रिया रूप मद आदि मन-वचन-काय योग के व्यापार रूप हैं। योगजनित कार्यों का समावेश योग आस्रव में होता है, प्रमाद आस्रव में नहीं। श्री जयाचार्य लिखते हैं :
अप्रमाद संवर आवा न दे, जे कर्म उदय थी ताय । अणउछाह आलस भाव ने जी, ते तीजो आस्रव जणाय ।। मन वचन काया रा व्यापार स्यूं जी, तीजो आस्रव जूदो जणाय । जोग आस्रव छै पांचमो जी, प्रमाद तीजो ताहि ।। असंख्याता जीवरा प्रदेश में अणउछापणो अधिकाय । ते दीसैं तीनूं जोगा स्यूं जुदोजी, प्रमाद आस्रव ताय । । मद विषय कषाय उदीरनें जी, भाव नींद में विकथा ताय । ए पांचू जोग रूप प्रमाद छै जी, तिण स्यूं जोग आस्रव में जणाय* । !
१.
तत्त्वा० ८.१ सर्वार्थसिद्धि :
प्रमादोऽनेकविधः, शुद्धयष्टकोत्तमक्षमादिविषयभेदात्
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२. तत्त्वार्थवार्तिक ८.१.३० :
भावकाय....वाक्यशुद्धिलक्षणाष्टविधसंयम - उत्तमक्षमा... ब्रह्मचर्यादिविषयानुत्साहभेदादनेक
विधः प्रमादोऽवसेयः
३. तत्त्वा० ८.१
प्रमादःस्मृत्यनवस्थानं कुशलेष्वनादरो योगदुष्प्रणिधानं चैष प्रमादः ।
४. झीणीचर्चा ढा० २२.२८-३०, ३३