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________________ ३७६ नव पदार्थ २. अविरति आस्रव : अविरति अर्थात् अत्याग भाव। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह आदि अठारह पाप, भोग-उपभोग वस्तुएं तथा सावध कार्यों से विरत न होना-प्रत्याख्यानपूर्वक उनका त्याग न करना अविरति है। ___ आचार्य पूज्यपाद ने षट् जीवनिकाय और षट् इन्द्रियों की अपेक्षा से अविरति बारह प्रकार की कही है। अविरति जीव का अशुभ परिणाम है। अविरति का विरोधी तत्त्व विरति है। अविरति आस्रव है। विरति संवर है। विरति अविरति को दूर करती है। जिन पाप पदार्थ अथवा सावध कार्यों का मनुष्य त्याग नहीं करता उनके प्रति उसकी इच्छाएँ खुली रहती हैं। उसकी भोगवृत्ति उन्मुक्त रहती है। यह उन्मुक्तता ही अविरति आस्रव है। त्याग द्वारा इच्छाओं का संवरण करना-उनकी उन्मुक्तता को संयमित करना संवर है। __ अविरति अत्यागभाव है और प्रमाद अनुत्साह भाव । अत्यागभाव और अनुत्साहभाव को एक ही मान कोई कह सकता है कि दोनों में कोई अन्तर नहीं। इसका उत्तर देते हुए अकलङ्कदेव कहते हैं-"नहीं। ऐसा नहीं। दोनों एक नहीं हैं। अविरति के अभाव में भी प्रमाद रह सकता है। विरत भी प्रमादी देखा जाता है। इससे दोनों आस्रव अपने स्वभाव से भिन्न हैं। ३. प्रमाद आस्रव : स्वामीजी ने इस आस्रव की परिभाषा आलस्यभाव-धर्म के प्रति अनुत्साह का भाव किया है। आचार्य पूज्यपाद ने भी ऐसी ही परिभाषा दी है-“स च प्रमादः कुशलेष्वनादरः” कुशल में अनादरभाव प्रमाद है। १. तत्त्व० ७.१; ८.१ सर्वार्थसिद्धि : तेभ्यो विरमणं विरतिव्रतमित्युच्यते। व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः इदं कर्त्तव्यमिदं न कर्त्तव्यमिति वा। तत्प्रतिपक्षभूता अविरतिर्लाह्या। २. (क) तत्त्वा० ८.१ सर्वार्थसिद्धि : अविरतिदिशविधा; षट्कायषट्करणविषयभेदात्। (ख) तत्त्वार्थवार्तिक ८.१.२६ : पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायचक्षुःश्रोत्रघ्राणरसनस्पर्शननोइन्द्रियेषु हननासंयमाविरति भेदात् द्वादशविधा अविरतिः ३. तत्त्वार्थवार्तिक १.८.३२ : अविरते प्रमादस्य चाऽविशेष इति चेत्, न; विरतस्यापि प्रमाददर्शनात् ।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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