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________________ ३८० नव पदार्थ . उपर्युक्त आस्रवों का गुणस्थानों के साथ जो सम्बन्ध है उसको आचार्य पूज्यपाद ने इस प्रकार प्रतिपादित किया है : "मिथ्यादृष्टि जीव के एक साथ पाँचों; सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि से अविरति आदि चार; संयतासंयत के विरति-अविरति, प्रमाद, कषाय और योग; प्रमत्त संयत के प्रमाद, कषाय और योग; अप्रमत्त संयत आदि चार के योग और कषाय; तथा उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगीकेवली के एक योग बन्ध-हेतु होता है। अयोगीकेवली के कोई बन्ध-हेतु नहीं होता। श्री जयाचार्य ने इस विषय में निम्न प्रकाश डाला है : पहिले तीजै मिथ्यात निरंतरै, चौथा लग सर्व इब्रत व्याप। निरंतर देश अव्रत पंचमे, तिण सूं समय २ लागे पाप।। छठे प्रमाद आस्रव निरन्तरे, दशमा लग निरन्तर कषाय। निरन्तर पाप लागे तेह ने, तीनूं जोगां स्यूं जुदो कहाय।। जद आवै गुणठाणे सातवें, प्रमाद रो नहीं बधै पाप। अकषाई हुवां स्यूं कषाय रो, नहीं लागे पाप संताप।। पहले और तीसरे गुणस्थान में निरन्तर मिथ्यात्व रहता है। अविरति पहले से चौथे गुणस्थान तक व्याप्त है। पाँचवें गुणस्थान में निरन्तर देश अविरति रहती है, जिससे समय-समय पाप लगता रहता है। छठे गुणस्थान में निरन्तर प्रमाद आस्रव होता है। दसवें गुणस्थान तक निरन्तर कषाय होता है, जिससे निरंतर पाप लगता है। यह कषाय आस्रव योग आस्रव से भिन्न है। सातवें गुणस्थान में आने पर प्रमाद का पाप नहीं बढ़ता। अकषायी होने पर कषाय का पाप नहीं लगता। इन आस्रव भेदों की युगपतता के विषय में उमास्वाति लिखते हैं : . . "मिथ्यादर्शन आदि पाँच हेतुओं में पूर्व पूर्व के हेतु होने पर आगे-आगे के हेतुओं का सद्भाव नियत है परन्तु उत्तरोत्तर हेतु के होने पर पूर्व पूर्व के हेतुओं का होना नियत नहीं है। . १. तत्त्वा० ८.१ सर्वार्थसिद्धि २. झीणीचर्चा ढा० २२.४४-४६ तत्त्वा० ८.१ भाष्यः एषां मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतूनां पूर्वस्मिन्पूर्वस्मिन्सति नियतमुत्तरेषां भावः । उत्तरोत्तरभावे तु पूवषामनियमः इति।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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