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________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) ३६३ ५८. पुण्य का आगमन निरवद्य योग से होता है। निरवद्य करनी योग आस्रव कैसे ? निर्जरा की हेतु है। पुण्य तो सहज ही आकर लगते हैं। इसलिए योग को आस्रव में डाला है। ५६. संसार सर्व कार्य आस्रव संसार के जो काम हैं वे सब आस्रव हैं-जीवों के परिणाम हैं। इनकी क्या गिनती कराऊँ ? ६०. कर्मों को लगानेवाला पदार्थ आस्रव है और आस्रव जीव द्रव्य है। जो आकर लगते हैं वे अजीव कर्म-पुद्गल हैं। . और जो कर्म लगाता है वह निश्चय ही जीव है। कर्म, आस्रव और जीव (गा०६०-६१) ६१. कर्मों का कर्ता द्रव्य है। यह कर्म-कर्तृत्व ही आस्रव है। जो किए जाते हैं वे कर्म कहलाते हैं। वे पुद्गल हैं, जो आ-आ कर लगते हैं। ६२. जिनके गाढ़ मिथ्यात्व का अंधेरा है वे आस्रक्-द्वार को नहीं पहचानते। उनको बिलकुल ही सुलटा नहीं दीखता। वे दिन-दिन अधिक उलझते जाते हैं। मिथ्यात्वी को आस्रव की पहचान नहीं होती ६३. जीव को आठ कर्म घेरे हुए हैं। वे प्रवाह रूप से जीव के अनादि काल से लगे हुए हैं। उनमें चार कर्म घातिय कर्म हैं, जो मोक्षमार्ग को प्राप्त नहीं होने देते। मोहकर्म के उदय से होनेवाले सावद्य कार्य योग आस्रव हैं (गा० ६३६५) ६४. अन्य कर्मों से तो जीव आच्छादित होता है परन्तु मोहकर्म से जीव बिगड़ता है। बिगड़ा हुआ जीव सावध व्यापार करता है। वे ही आस्रव-द्वार हैं। . चारित्र मोह के उदय से जीव मतवाला हो जाता है जिससे सावध कार्यों से अपना बचाव नहीं कर सकता। जो सावध कार्यों का सेवन करने वाला है वही आस्रव-द्वार है।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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