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________________ ३२० नव पदार्थ दर्शनमोहनीय कर्म कैसे बंधता है, इस विषय में आगम में निम्न वार्तालाप मिलता “हे भगवन ! जीव कांक्षामोहनीय (दर्शनमोहनीय) कर्म किस प्रकार बाँधते हैं ? "हे गौतम ! प्रमादरूप हेतु से और योग रूप निमित्त से जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बंध करते हैं।" "हे भगवन् ! वह प्रमाद कैसे होता है ?" "हे गौतम ! वह प्रमाद योग से होता है।" "हे भगवन् ! वह योग किस से होता है ?" “हे गौतम ! वह योग वीर्य से उत्पन्न होता है।" "हे भगवन् ! वह वीर्य किससे उत्पन्न होता है ?" "हे गौतम ! वह वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है।" "हे भगवन् ! यह शरीर किस से उत्पन्न होता है ?" "हे गौतम ! यह शरीर जीव से उत्पन्न होता है। जब ऐसा है तब उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम हैं।" सर्वार्थसिद्धि मे चारित्र-मोहनीय कर्म के बंध-हेतुओं का विस्तार इस रूप में मिलता स्वयं कषाय करना, दूसरों में कषाय उत्पन्न करना, तपस्वीजनों के चारित्र में दूषण लगाना, संक्लेश को पैदा करने वाले लिङ्ग (वेष) और व्रत को धारण करना आदि कषायवेदनीय के आस्रव हैं। सत्य धर्म का उपहास करना, दीन मनुष्य की दिल्लगी उड़ाना, कुत्सित राग को बढ़ानेवाला हंसी-मजाक करना, बहुत बकने व हंसने की आदत रखना आदि हास्य वेदनीय के आस्रव हैं। १. भगवती १.३ २. सर्वार्थसिद्धि ६.१४ : तत्र स्वपरकषायोत्पादनं तपस्विजनवृत्तदूषणं संक्लिष्टलिङ्गव्रत धारणादिः कषायवेदनीयस्यास्रवः। ३. वही ६.१४ : सद्धर्मोपहसनदीनातिहासकन्दर्पोपहासबहुविप्रलापोपहासशीलतादिर्हास्यवेदनी
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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