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________________ पाप पदार्थ : टिप्पणी ६-७ ३१६ . मोह कर्म के उदय से जीव मिथ्यादृष्टि और चरित्रहीन बनता है। इसके अनुभाव पाँच हैं : सम्यक्त्व-वेदनीय, मिथ्यात्व-वेदनीय, सम्यमिथ्यात्व-वेदनीय, कषाय-वेदनीय और नो-कषाय-वेदनीय'। मोहनीय कर्म के बंध-हेतुओं का उल्लेख करते हुए तत्त्वार्थसूत्र में कहा है : “केवलज्ञानी, श्रुत, संघ, धर्म और देवों का अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का बंध-हेतु है और कषाय के उदय से होनेवाला तीव्र आत्म-परिणाम चारित्रमोहनीय कर्म का।" निरावरण ज्ञानी को केवली कहते हैं। केवली द्वारा प्ररूपित और गणधरों द्वारा रचित सांगोपांग ग्रंथ श्रुत है। रत्नत्रय से युक्त श्रमणों का गण संघ है अथवा रत्नत्रय से युक्त श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विद गण संघ है। पंचमहाव्रत का जो साधन रूप है वह धर्म है अथवा अहिंसा लक्षण है जिसका वह धर्म है । भवनवासी आदि देव हैं। केवली आदि का अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का बंध-हेतु है। अवर्णवाद का अर्थ है असद्भूतदोषोदभावनम्'-जो दोष नहीं है उसका उद्भावन करना-कथन करना। आगम में कहा है-“अरिहन्तों का अवर्णवाद, धर्म का अवर्णवाद, आचार्यउपाध्यायों का अवर्णवाद, संघ का अवर्णवाद और देवों का अवर्णवाद-इन पांच अवर्णवादों के होने से जीव धर्म की प्राप्ति नहीं कर सकता।" १. प्रज्ञापना २३.१ : गोयमा ! मोहणिज्जस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविधे अणुभावे पन्नते तंजहा-सम्मतवेयणिज्जे, मिच्छत्तदेयणिज्जे, सम्मामिच्छत्तवेयणिज्जे कसायवेयणिज्जे, नोकषायवेयणिज्जे। . . . २. तत्त्वा० ६.१४-१५ : केवलिश्रुतसंधधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य। कषायोदयात्तीव्रात्मपरिणामश्चारित्र मोहस्य । ३. सर्वार्थसिद्धि ६.१३ : निरावरणज्ञानाः केवलिनः। ४. (क) तत्त्वा० भाष्य ६.१४ : चातुर्वर्ण्यस्य सङ्घस्य पञ्चमहाव्रतसाधांनस्य धर्मस्य (ख) सर्वार्थसिद्धि ६.१३ रत्नत्रयोपेतः श्रमणगणः संघः। अहिंसालक्षणस्तदागमदेशितो धर्मः। ठाणाङ्ग ४.२६
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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