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________________ ३१८ नव पदार्थ नपुंसक-वेद कर्म कहते हैं। “जिसके उदय से जीव नपुंसक संबंधी भावों को प्राप्त होता है वह नपुंसक-वेद है।" नपुंसक-वेद नगरदाह के समान है। जैसे नगरी की आग बहुत दिनों तक जलती रहती है और उसके बुझने में भी बहुत दिन लगते हैं उसी प्रकार नपुंसक की भोगेच्छा चिरकाल तक निवृत्त नहीं होती। तत्त्वार्थभाष्य में पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद की तुलना क्रमशः तृण, काष्ठ और करीषाग्नि के साथ की गई है। श्री नेमचन्द्र ने इनकी तुलना तृण, कारीष और इष्टपाक-भट्ठी की अग्नि के साथ की है । नपुंसक वेद को लेकर वे लिखते हैं : "नपुंसक कलुषचित्तवाला होता है। उसका वेदानुभव भट्ठी की अग्नि की तरह अत्यन्त तीव्र होता है।" कर्मग्रंथ, तत्त्वार्थभाष्य और गोम्मटसार की तुलनाओं में स्पष्टतः अन्तर है। उपर्युक्त २५ प्रकृतियों में अनन्तानुबन्धी कषाय, अप्रत्याख्यानी कषाय और प्रत्याख्यानी कषाय ये बारह कषाय सर्वघाती हैं। १. तत्त्वा० ८.६ सर्वार्थसिद्धि : यदुदयान्नापुंसकान्भावानुपव्रजति स नपुंसकवेदः २. देखिए पृ० ३१७ पा० टि० ३ ३. तत्त्वा० ८.१० भाष्यः तत्र पुरुषवेदादीनां तृणकाष्ठकरीषाग्नयो निदर्शनानि भवन्ति ४. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) २७६ : तिणकारिसिट्ठपागग्गिसरिसपरिणामवेयणुम्मुक्का। अवगयवेदा जीवा सयसंभवणंतवरसोक्खा।। ५. वही २७५ : णेवित्थी णेव पुमं णउंसओ उहयलिंगविदिरित्तो। __ इट्ठावग्गिसमाणगवेदणगरुओ कलुसचित्तो।। ६. (क) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) ३६ : केवलणाणावरणं दंसणछक्कं कषायबारसयं। मिच्छं च सव्वघादी सम्मामिच्छं अबंधम्हि ।। (ख) ठाणाङ्ग २.४.१०५ टीका में उद्धृत केवलणाणावरणं दंसणछक्कं च मोहबारसगं। ता सव्वाघाइसन्ना भवंति मिच्छत्तवीसइमं ।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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