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________________ पाप पदार्थ : टिप्पणी ६-७ अनन्तानुबंधी कषाय की स्थिति यावज्जीवन की, अप्रत्याख्यानी कषाय की एक वर्ष की, प्रत्याख्यानी कषाय की चार मास की और संज्वलन कषाय की स्थिति एक पक्ष की होती है। दिगम्बर ग्रंथों में अनन्तानुबन्धी की स्थिति संख्यात-असंख्यात-अनन्त भव; अप्रत्याख्यानी की ६ मास, प्रत्याख्यानी की एक पक्ष और संज्वलन की एक अन्तर्मुहूर्त की कही गयी है। श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों ही के मत से जीव अनन्तानुबंधी कषाय की अवस्था में नरक गति, अप्रत्याख्यानी कषाय की अवस्था में तिर्यञ्च गति, प्रत्याख्यानी कषाय की अवस्था में मनुष्य गति और संज्वलन कषाय की अवस्था में देव गति को प्राप्त करते हैं। क्रोध खरावर्त-जल के आवर्त-भ्रमर की तरह होता है। मान उन्नतावर्त-पर्वत् आदि जैसी ऊँची जगह के चक्राव की तरह होता है। माया गूढावर्त-वनस्पति की गांठ की तरह होती है और लोभ आमिषावर्त-मांस के लिए पक्षी के चक्कर काटने की तरह होता है। अनन्तानुबंधी क्रोध पर्वत की रेखा-दरार की तरह अमिट होता है। अप्रत्याख्यानी क्रोध पृथ्वीतल की रेखा-दरार की तरह कठिनाई से शांत होनेवाला होता है। प्रत्याख्यानी क्रोध बालू की रेखा की तरह शीघ्र मिटनेवाला होता है। संज्वलन क्रोध जल की रेखा की तरह और भी शीघ्र मिटनेवाला होता है। गोम्मटसार में भी यही उदाहरण है। १. प्रथम कर्मग्रन्थ गा० १८ : जाजीववरिसचउमासपक्खगा नरयतिरियनरअमरा। सम्माणुसव्वविरईअहखायचरित्तघायकरा।। २. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) ४६ : अंतोमुहूत्तं पक्खं छम्मासं संखऽसंखणंतभवं । संजलणमादियाणं वासणकालो दुणियमेण। ३. (क) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) : २८४-२८७: (नीचे पा० टि० ६ तथा पृ० २१६ पा० टि० २.४.६ में उद्धृत) । (ख) उपर्युक्त पा० टि० १ - ४. ठाणाङ्ग ४.३.३८५ ५. वही ४.२.३११ ६. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) २८४ : सिलपुढविभेदधूलीजलराइसमाणओ हवे कोहो।' णारयतिरियणरामरगईसु उप्पायओ कमसो।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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