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________________ ३१६ .. नब पदार्थ अनन्तानुबंधी मान शैल-स्तम्भ की तरह, अप्र० मान अस्थि-स्तम्भ की तरह, प्र० मान दारु-स्तम्भ की तरह तथा सं० मान तिनिशलता-स्तम्भ जैसा होता है। गोम्मटसार में तिनिशलता के स्थान में 'वेत्त'-वेत्र है। अनन्तानुबंधी माया बांस की मूल की तरह, अप्र० माया मेष के सींग की तरह, प्र० माया गोमूत्र की धार की तरह और सं० माया बांस की ऊपरी छाल की तरह वक्र होती है। तत्त्वार्थभाष्य में सं० माया को निर्लेखनसदृशी कहा है। गोम्मटसार में खुरपी के सदृश । अनन्तानुबंधी लोभ किरमिच से रंगे वस्त्र की तरह, अप्र० लोभ कर्दम से रंगे वस्त्र की तहर, प्र० लोभ खंजन से रंगे हुए वस्त्र की तरह और सं० लोभ हल्दी से रंगे हुए वस्त्र की तरह होता है | गोम्मटसार में खंजन के रंग के स्थान में 'तणुमल'-शरीर मल का उदाहरण है। तत्त्वार्थभाष्य में किरमिच के रंग की जगह लाक्षाराग और खंजन के रंग के स्थान में कुसुम्मराग है। १७. हास्य मोहनीय : जो कर्म निमित्त से या अनिमित्त ही हास्य उत्पन्न करे उसे हास्य मोहनीय कर्म कहते हैं। १८. रति मोहनीय : जो कर्म रुचि, प्रीति, राग उत्पन्न करे उसे रति मोहनीय कर्म कहते हैं। १६. अरति मोहनीय : जो कर्म अरुचि, अप्रीति, द्वेष उत्पन्न करता है उसे अरति मोहनीय कर्म कहते हैं। १. ठाणाङ्ग ४.२.२६३ २. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) २८५ : सेलट्ठिकट्ठवेत्ते णियभेएणणुहरंतओ माणो। णारयतिरियणरामरगईसु उप्पायओ कमसो।। ३. ठाणाङ्ग ४.२.२६३ ४. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) २८६ : वेणुवमूलोरभयसिंगे गोमुत्तए य खोरप्पे। सरिसी माया णारयतिरियणरामरगईसु खिवदि जियं ।। ठाणाङ्ग ४.२.२६३ ६. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) २८७ : किमिरायचक्कतणुमलहरिद्दराएण सरिसओ लोहो। णारयतिरिक्खमाणुसदेवेसुप्पायओ कमसो।। ७. तत्त्वा० ८.१० भाष्य : अस्य लोभस्य तीव्रादिभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति। तद्यथा-लाक्षारागसदृशः, कर्दमरागसदृशः; कुसुम्भरागसदृशो हारिद्ररागसदृशः इति । ५
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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