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________________ ३१४ श्वेताम्बर विद्वानों ने इसके अर्थ का स्फोटन करते हुए लिखा है- " जो कर्म संविग्न और सर्व पाप की विरति से युक्त यति को भी क्रोधादि युक्त करता है - अप्रशमभाव युक्त करता है उसे संज्वलन- कषाय कहते हैं। शब्दादि विषयों को प्राप्त कर जिससे जीव बार-बार कषाय युक्त होता है वह संज्वलन कषाय है'।" अनन्तानुबंधी कषाय सम्यग्दर्शन का उपघात करने वाला होता है। जिस जीव के अनन्तानुबंधी क्रोध आदि में से किसी का उदय होता है उसके सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता। यदि पहले सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो गया हो और पीछे अनन्तानुबंधी कषाय का उदय हो जाय तो वह उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन भी नष्ट हो जाता है । अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से किसी भी तरह की एकदेश या सर्वदेश विरति नहीं होती । इस कंषाय के उदय से संयुक्त जीव महाव्रत या श्रावक के व्रतों को धारण नहीं कर सकता। नव पदार्थ प्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय से विरताविरति एकदेश रूप संयम होने पर भी सकल चरित्र नहीं हो पाता । संज्वलन कषाय के उदय से यथाख्यात चारित्र का लाभ नहीं होता । यही बात दिगम्बर ग्रंथों में भी कही है । (क) संज्वलयन्ति यतिं यत्संविज्ञं सर्वपापावरतमपि । तस्मात् संज्वला इत्यप्रशमकरा निरुध्यन्ते । (ख) शब्दादीन् विषयान् प्राप्य संज्वलयन्ति यतो मुहुः | ततः संज्वलनाह्वानं चतुर्थानामिहोच्यते ।। तत्त्वा० ८.१० भाष्य : अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनोपघाती । तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते । पूर्वोत्पन्नमपि च प्रतिपतति । तत्त्वा० ८.१० भाष्य : अप्रत्याख्यानकषायोदया द्विरतिर्न भवति । तत्त्वा० ८.१० भाष्य : अप्रत्याख्यानावरणकषायोदयाद्विरताविरतिर्भवत्युत्तमचारित्रलाभस्तु न भवति । ५. तत्त्वा० ८.१० : संज्वलनकषायोदयाद्यथाख्यातचारित्रलाभो न भवति । ६. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) २८३ : १. २. ३. ४. सम्मत्तदेससयलचरित्तजहक्खादचरणपरिणामे । घादति वा कषाया चउसोल असंखलोगमिदा । ।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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