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________________ पाप पदार्थ : टिप्पणी ६-७ ३१३ चारित्र मोहनीय के भेद इस प्रकार हैं : १-४. अनन्तानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ : जो कर्म ऐसे उत्कृष्ट क्रोध आदि उत्पन्न करते हैं कि जिनके प्रभाव से जीव को अनन्त काल तक संसार-भ्रमण करना पड़ता है क्रमशः अनन्तानुबंधी क्रोध, अ० मान, अ० माया और अ० लोभ कहलाते हैं'। ५-८. अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध-मान-माया-लोभ : जो कर्म ऐसे क्रोध-मान-माया-लोभ को उत्पन्न करें कि जिनसे सम्यक्त्व तो न रुके पर प्रत्याख्यान-थोड़ी भी पाप-विरति न हो सके उन्हें क्रमशः अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, अ० मान, अ० माया और अ० लोभ कहते हैं। ६.१२. प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध-मान-माया-लोभ : जो कर्म ऐसे क्रोध-मान-माया-लोभ को उत्पन्न करें कि जिनसे सम्यक्त्व और देश प्रत्याख्यान तो न रुकें पर सर्व प्रत्याख्यान न हो सके-सर्व सावध विरति न हो सके उन्हें क्रमशः प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, प्र० मान, प्र० माया और प्र० लोभ कहते हैं। १३-१६. संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ : जो कर्म ऐसे क्रोध आदि उत्पन्न करें कि जिनसे सर्वप्रत्याख्यान होने पर भी यथाख्यात चारित्र न हो पावे उन्हें क्रमशः संज्वलनक्रोध, सं० मान, सं० माया और सं० लोभ कहते हैं। दिगम्बर आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं-'स' का प्रयोग एकीभाव अर्थ में है। संयम के साथ अवस्थान होने से एक होकर जो ज्वलित होते हैं या जिनके सद्भाव में भी संयम चमकता रहता है वे संज्वलन कषाय हैं। १. (क) अनन्तान्यनुबध्नन्ति यतो जन्मानि भूतये। ततोऽनन्तानुबन्ध्याख्या क्रोधाद्येषु नियोजिता ।। (ख) संयोजयन्ति यन्नरमनन्तसंख्यैर्भवेः कषायास्ते। संयोजनताऽनन्तानुबन्धिता वाप्यस्तेषाम् ।। .. २. स्वल्पमपि नात्सहेद् येषां प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो द्वितीयेषु निवेशिता। ३. सर्वसावद्यविरतिः प्रत्याख्यानमुदाहृतम्। तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता।। सर्वार्थसिद्धि ८.६ : समेकीभावे वर्तते । संयभेन सहावस्थानादेकीभूय ज्वलन्ति संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्वपीति संज्वलनाः क्रोधमानमायालोभाः।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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