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________________ २८४ नव पदार्थ यहाँ प्रश्न होता है-यदि देहादि कार्य मूर्त होने से कारण कर्म मूर्त है तो सुख दुःखादि अमूर्त होने से उनका कारण कर्म अमूर्त होना चाहिए ? इसका उत्तर यह है कि कार्य के मूर्त अथवा अमूर्त होने से उसके सब कारण मूर्त अथवा अमूर्त होंगे ऐसा नहीं। सुख आदि अमूर्त कार्य का केवल कर्म ही कारण नहीं, आत्मा भी उसका कारण है और कर्म भी कारण है। दोनों में भेद यह है कि आत्मा समवायी कारण है और कर्म समवायी कारण नहीं है। अतः सुख-दुःखादि अमूर्त कार्य होने से उसके समवायी कारण आत्मा का अनुमान हो सकता है। और सुख-दुःखादि की अमूर्तता के कारण कर्म में अमूर्तता का अनुमान करने का कोई प्रयोजन नहीं । अत देहादि कार्य के मूर्त होने से उसके कारण कर्म को भी मूर्त मानना चाहिए, इस कथन में दोष नहीं। (४) पाप-कर्म स्वयंकृत हैं। पापास्रव जीव के अशुभ कार्यों से होता है : इस सम्बन्ध में एक बड़ा ही सुन्दर वार्तालाप भगवती सूत्र (६.३) में मिलता है। विस्तृत होने पर भी उस वार्तालाप का अनुवाद यहाँ दे रहे हैं। "हे गौतम ! जिस तरह अक्षत-बिना पहना हुआ, पहन कर धोया हुआ, या बुनकर सीधा उतारा हुआ वस्त्र जैसे-जैसे काम में लाया जाता है उसके सर्व ओर से पुद्गल रज लगती रहती है, सर्व ओर से उसके पुद्गल रज का चय होता रहता है और कालांतर में वह वस्त्र मसौते की तरह मैला और दुर्गन्ध युक्त हो जाता है, उसी तरह हे गौतम ! यह निश्चित है कि महाकर्मवाले, महाक्रियावाले, महानववाले और महावेदनावाले जीव के सब ओर से पुद्गलों का बंध होता है, सब ओर से कर्मों का चय-संचय-होता है, सब ओर से पुद्गलों का उपचय होता है, सदा-निरन्तर पुद्गलों का बंध होता है, सदा-निरन्तर पुद्गलों का चय-संचय होता है, सदा-निरन्तर पुद्गलों का उपचय होता है और उस जीव की आत्मा सदा-निरन्तर दुरूपभाव में, दुवर्णभाव में, दुर्गन्धभाव में, दुःरसभाव में, दुःस्पर्शभाव में, अनिष्टभाव में, असुन्दरभाव में, अप्रिय भाव में, अशुभभाव में, अमनोज्ञभाव में, अमनोगम्यभाव में, अनीप्सितभाव में, अनकांक्षितभाव में, जघन्यभाव में, अनूलभाव में, दुःखभाव में और असुखभाव में बार-बार परिणाम पाती रहती है। ___"हे भगवन ! वस्त्र के जो पुद्गलोपचय होता है वह प्रयोग से-आत्मा के करने से होता है या विनसा से-अपने आप ?" "हे गौतम ! वस्त्र के मलोपचय प्रयोग से भी होता है और अपने आप भी।" १. (क) विशेषावश्यकभाष्य गा० १६२२-२६ (ख) गणधरवाद पृ० १३६-१४२
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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