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________________ पाप पदार्थ : टिप्पणी ४ "हे भगवन ! जिस तरह वस्त्र के मलोपचय-प्रयोग से भी होता है और अपने आप भी, उसी तरह क्या जीवों के भी कर्मोपचय, प्रयोग और अपने आप दोनों प्रकार से होता है ?" २८५ " हे गौतम! जीवों के कर्मोपचय-प्रयोग से होता है- आत्मा के करने से होता है, अपने आप नहीं होता । " हे गौतम! जीव के तीन प्रकार के प्रयोग कहे हैं- मन प्रयोग, वचन प्रयोग और या प्रयोग | इन तीन प्रकार के प्रयोगों द्वारा जीवों के कर्मोपचय होता है। अतः जीवों के कर्मोपचय प्रयोग से हैं विस्रसा से नहीं - अपने आप नहीं ।" अन्य आगमों में भी कहा है- "सर्व जीव अपने आस-पास छहों दिशाओं में रहे हुए कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और आत्मा के सर्व प्रदेशों के साथ सर्व कर्मों का सर्व प्रकार से बंधन होता है ।" जिस तरह कोई पुरुष शरीर में तेल लगा कर खुले शरीर खुले स्थान में बैठे तो तेल के प्रमाण से उसके सारे शरीर से रज चिपकती है, उसी प्रकार रागद्वेष से स्निग्ध जीव कर्मवर्गणा में रहे हुए कर्मयोग्य पुद्गलों को पाप-पुण्य रूप में ग्रहण करता है। कर्मवर्गणा के पुद्गलों से सूक्ष्म ऐसे परमाणु और स्थूल ऐसे औदारिक आदि शरीर योग्य पुद्गलों का कर्मरूप ग्रहण नहीं होता । पुनः जीव स्वयं आकाश के जितने प्रदेशों में होता है उतने ही प्रदेशों में रहे हुए पुद्गलों का अपने सर्व प्रदेशों द्वारा ग्रहण करता है । कहा है : "एक प्रदेश में रहे हुए अर्थात् जिस प्रदेश में जीव होता है उस प्रदेश में रहे हुए कर्म-योग्य पुद्गल को जीव अपने सर्व प्रदेश द्वारा बांधता है। उसमें हेतु जीव के मिथ्यात्वादि हैं। यह बंध आदि अर्थात् नया और परंपरा से अनादि भी होता है । " प्रश्न हो सकता है - समूचे लोक के प्रत्येक आकाश-प्रदेश में पुद्गल-परमाणु शुभाशुभ भेद के बिना भरे हुए हैं। जिस प्रकार पुरुष का तेल -स्निग्ध शरीर छोटे बड़े रजकणों का भेद करता है पर शुभाशुभ का भेद किये बिना ही जो पुद्गल उसके संसर्ग में आते हैं उन्हें ग्रहण करता है, उसी प्रकार जीव भी स्थूल और सूक्ष्म के विवेकपूर्वक कर्मयोग्य पुद्गलों का ही ग्रहण करे यह उचित है । पर ग्रहण काल में ही वह उसमें शुभाशुभ का विभाग कर दो में से एक का ग्रहण करे और दूसरे का नहीं - यह कैसे होता है ? इसका उत्तर इस प्रकार है- - जब तक जीव कर्म-पुद्गलों को ग्रहण नहीं करता तब तक वे पुद्गल शुभ या अशुभ दोनों विशेषणों से विशिष्ट नहीं होते अर्थात् वे अविशिष्ट १. उत्त० ३३ : १८ सव्वजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं । सव्वे विपसेसु सव्वं सव्वेण बद्धगं ।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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