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________________ पाप पदार्थ : टिप्पणी १ २८३ अतः सुख दुःख का कारण कर्म, सुख-दुःख की अमूर्तता के कारण, अमूर्त सिद्ध नहीं हो सकता। कार्यानुरूप कारण के सिद्धान्त का अभिप्राय यह है कि यद्यपि संसार में सब ही तुत्यातुल्व हैं फिर भी कारण का ही एक विशेष स्वपर्याय कार्य है अतः उसे इस दृष्टि से अनुरूप कहा जाता है। कार्य सिवाय सारे पदार्थ उसके अकार्य हैं-परपर्याय हैं अतः उस दृष्टि से उन सबको कारण से अननुरूप-असमान कहा गया है। तात्पर्य यह है कि कारण कार्य-वस्तुरूप में परिणत होता है परन्तु उससे भिन्न दूसरी वस्तुरूप में परिणत नहीं होता। दूसरी सारी वस्तुओं के साथ कारण की अन्य प्रकार से समानता होने पर भी इस दृष्टि से अर्थात् परपर्याय की दृष्टि से कार्यभिन्न सारी वस्तुएँ कारण से असमान-अननुरूप हैं। यहां प्रश्न होता है-सुख और दुःख ये अपने कारण पुण्य-पाप के स्वपर्याय कैसे हैं। इसका उत्तर है-जीव और पुण्य का संयोग ही सुख का कारण है। उस संयोग का ही स्वपर्याय सुख है | जीव और पाप का संयोग दुःख का कारण है। उस संयोग का ही स्वपर्याय दुःख है। पुनः जैसे सुख को शुभ, कल्याण, शिव इत्यादि कहा जा सकता है उसी तरह उसके कारण पुण्य को भी उन शब्दों द्वारा कहा जा सकता है। पुनः दुःख जैसे अशुभ, अकल्याण, अशिव इत्यादि संज्ञा को प्राप्त होता है उसी प्रकार उसका कारण पापद्रव्य भी इन्हीं शब्दों से प्रतिपादित होता है; इसी से विशेष रूप से सुख-दुःख के अनुरूप कारण के तौर पर पुण्य-पाप कहे गये हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे नीलादि पदार्थ मूर्त होने पर भी तत्प्रतिभासी अमूर्त ज्ञान को उत्पन्न करते हैं वैसे ही मूर्त कर्म भी अमूर्त सुखादि को उत्पन्न करता है। अथवा जैसे अन्नादि दृष्ट पदार्थ सुख के मूर्त कारण हैं उसी प्रकार कर्म भी मूर्त कारण है। प्रश्न होता है-कर्म दिखाई नहीं देता, अदृष्ट है तो फिर उसे मूर्त कैसे माना जाय ? उसे अमूर्त क्यों न कहा जाय ? इसका उत्तर यह है कि देहादि मूर्त वस्तु में निमित्त-मात्र बनकर कर्म घट की तरह बलाधायक होता है अतः वह मूर्त है । अथवा जिस तरह घट को तेल आदि मूर्त वस्तुओं से बल मिलता है वैसे ही कर्म को भी विपाक देने में चंदनादि मूर्त वस्तुओं द्वारा बल मिलने से कर्म भी घट की तरह मूर्त है। कर्म के कारण देहादि रूप कार्य मूर्त हैं अतः कर्म भी मूर्त होना चाहिए। जिस प्रकार परमाणु का कार्य घटादि मूर्त होने से परमाणु मूर्त अर्थात् रूपादि वाला होता है उसी प्रकार कर्म का कार्य शरीर मूर्त होने से कर्म भी मूर्त है।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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