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________________ पाप पदार्थ २६३ इसके क्षयोपशम आदि से निष्पन्न भाव मोहनीय कर्म का स्वभाव और उसके भेद (गा०, १६-१७) १४. उपर्युक्त पाँच निद्राओं तथा चक्षु, अचक्षु, अवधि तथा केवल इन चार दर्शनावरणीय कर्मों से जीव बिलकुल अंधा हो जाता है-उसे बिलकुल दिखाई नहीं देता। देखने की अपेक्षा से दर्शनावरणीय कर्म पूरा अंधेस कर देता है। १५. दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने से जीव को चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीन क्षयोपशम दर्शन प्राप्त होते हैं। इस कर्म के सम्पूर्ण क्षय से केवलदर्शनरूपी दीपक घट में प्रकट होता है। १६. तीसरा घनघाती कर्म मोहनीय कर्म है। उसके उदय से जीव मतवाला हो जाता है। इस कर्म के उदय से जीव सच्ची श्रद्धा की अपेक्षा मूढ़ और मिथ्यात्वी होता है तथा उसके बुरे कार्यों का परिहार नहीं होता। १७. जिन भगवान ने मोहनीय कर्म के दो भेद कहे हैं: (१) दर्शनमोहनीय और (२) चारित्रमोहनीय । यह मोहनीय कर्म सम्यक्त्व और चारित्र-जीव के इन दोनों स्वाभाविक गुणों को बिगाड़ता है। १८. जब दर्शनमोहनीय कर्म का उदय होता है तब शुद्ध सम्यक्त्वी जीव भी मिथ्यात्वी हो जाता है। जब चारित्रमोहनीय कर्म उदय में होता है तब जीव चारित्र खोकर छः प्रकार के जीवों का घाती हो जाता है। १६-२० दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से शुद्ध श्रद्धान-सम्यक्त्व नहीं आता। इसके उपशम होने पर जीव निर्मल उपशम सम्यक्त्व पाता है। इस कर्म के बिलकुल क्षय होने पर शाश्वत क्षायक सम्यक्त्व और क्षयोपशम होने पर क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है। दर्शनमोहनीय के उदय आदि से निष्पन्न भाव (गा०, १८-२०) २१-२२ चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से सर्वविरति रूप चारित्र , चारित्रमोहनीय कर्म नहीं आता। इस कर्म के उपशम होने से जीव निर्मल और उसके उदय आदि से निष्पन्न उपशम चारित्र पाता है और इसके सम्पूर्ण क्षय से उत्कृष्ट क्षायक चारित्र की प्राप्ति होती है। इसके क्षयोपशम से जीव चार क्षयोपशम चारित्र प्राप्त करता है। भाव
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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