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पुण्य पदार्थ ( ढाल : २) : टिप्पणी ३०
एक श्रावक धर्म-लाभ की भावना से खुले मुँह स्वाध्याय-स्तवन करता है। यदि भावना से योग शुभ हो तो जीवों का घात करते हुए खुले मुंह स्तवन आदि करना भी शुभ योग होगा ।
जो परिणामवाद अशुद्ध द्रव्य पूजा में पुण्य का प्ररूपक हुआ उसकी आलोचना करते हुए स्वामीजी कहते हैं- "कई कहते हैं कि अपने परिणाम अच्छे होने चाहिए फिर
-हिंसा का पाप नहीं लगता। जो दूसरे जीवों के प्राणों को लूटता है उसके परिणाम भला अच्छे कैसे हैं ? आगमों में कहा है- अर्थ, अनर्थ और धर्म के हेतु जीव-घात करने में पाप होता है। फिर भी कई कहते हैं, धर्म के लिए जीव-हिंसा से पाप का बंध नहीं होता क्योंकि परिणाम विशुद्ध हैं। जो उदीर कर जीव-हिंसा कर रहा है उसके परिणामों को अच्छे बतलाना निरी विवेकरहित बात है |
१. भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर ( खण्ड १ ) : विरत इविरत री चौपाई : ढाल ८.२,३,४,६,८ : साधनें तपाव अगन सूं अग्यांनी, ते तो पाप अठारां में पेंहलों रे । तिण मांहें पुन परूपें अग्यांनी, तिणनें पिंडत कहीजें के गेंहलो रे ।। साधु नें तपायां में पुन परूपें ते तो मूढ मिथ्याती छे पूरो रे । अगन री हिंसा में पाप न जांणें, ते मत निश्चेंइ कूडो रे ।। सझाय स्तवन कहें मुख उघाड़ें, जब वाउ जीवां री हुवें घातो रे । केइ कहें वाउकाय रो पाप न लागें, आ उंध मती री छें बातो रे ।।
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साधां नें वांदण जाता मारग में, तस थावर री हुवें घातो रे । ज्यां सूं जीव मूआ ज्यांनें पाप न सरधें, त्यांरा घट माहें घोर मिथ्यातो रे ।।
विण उपीयोगें मारग मांहें चालें, कदे न मरें जीव किण बारो रे ।
तो पिण वीर कह्यों छें तिण नें, छ काय रो मारणहारो रे ।।
(क) वही : ढा० ६, दोहा १-३ :
जिण आगम मांहें इम कह्यों, श्री जिण मुख सूं आप । अर्थ अनर्थ धर्म कारणें जीव हण्या छें पाप ।।
केइ अग्यांनी इम कहें, धर्म काजें हणें जीव कोय ।
चोखा परिणांमा जीव मारीयां त्यांरो जाबक पाप न होय ।।
जीव मारें छे उदीर नें तिणरा चोखा कहें परिणाम । ते विवेक विकल सुध बुध विनां वले जेंनी धरावें नाम ।। (ख) वही ढा० १२.३४,३६ :
जीव माऱ्यां हो पाप लागें नहीं,
चोखा चाहीजें निज परिणाम हो । । तिणरा चोखा परिणांम किहां थकी, पर जीवां रा लूटें छें प्रांण हो ।।