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________________ पुण्य पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ५ २०६ ५. अशुभ अल्पायुष्य और शुभ दीर्घायुष्य के बंध-हेतु (गा० ४-६) गाथा ४ में 'स्थानाङ्ग' के जिस पाठ का उल्लेख है वह इस प्रकार है : तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउअत्ताते कम्पं पगरिंति, तं०-पाणे अतिवातित्ता भवति मुसं वइत्ता भवइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभित्ता भवइ, इच्चेतेहि तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउअत्ताते कम्मं पगरेंति। (३.१. १२५) यहाँ अल्पायुष्यकर्म बंध के तीन हेतु कहे गये हैं : १. प्राणातिपात, २. मृषावाद और ३. तथारूप' श्रमण' माहन को अप्रासुक' अनेषणीय आहार का प्रतिलाभ । प्राणियों की हिंसा करना, झूठ बोलना, मूलगुणधारी श्रमण-साधु को सचित्त और अकल्प्य आहार देना ये तीनों ही कर्म सावध हैं। अशुभ योग हैं। जिन-आज्ञा के बाहर हैं। इनसे अल्पायुष्य का बंध होता है और वह पाप-कर्म की प्रकृति है। गाथा ५-६ में “स्थानाङ्ग' के जिस पाठ की सूचना है वह इस प्रकार है : तिहिं ठाणेहिं जीवा दीहाउअत्ताते कम्मं पगरेंति, तं०-णो पाणे अतिवातित्ता भवइ णो मुसं वतित्ता भवति तथारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभत्ता भवइ, इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति । (३.१. १२५)। यहाँ दीर्घायुष्यकर्म बंध के तीन हेतु कहे हैं : १. प्राणातिपात न करना, २. मृषा न बोलना और ३. तथारूप श्रमण निग्रंथ को प्रासुक एषणीय आहार से प्रतिलाभित करना। १. तथा तत्प्रकारं रूपं-स्वभावो नेपथ्यादि वा यस्य स तथारूपः दानोचित इत्यर्थः २. श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः-तपोयुक्तस्तं ३. मा हन इत्याचष्टे यः परं स्वयं हनननिवृत्तः सन्निति स माहनो मूलगुणधरस्तं ४. प्रगता असवः असुमन्तः प्राणिनो यस्मात् तत्प्रासुकं तन्निषेधादप्रासुकं सचेतनमित्यर्थः ५. एष्यते-गवेष्यते उद्गमादिदोषविकलतया साधुभिर्यत्तदेषणीयं-कल्पं तन्निषेधादनेषणीयं तेन
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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