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________________ २०८ "वह श्रमण, जिसे पदार्थ और सूत्र सुविदित हैं, जो संयम और तप से संयुक्त है, जो वीतराग है और जिसको सुख-दुःख सम हैं शुद्ध उपयोगवाला है' । “सिद्धान्त के अनुसार श्रमण शुद्धोपयोगयुक्त और शुभोपयोगयुक्त दो तरह के होते हैं। उनमें जो शुद्धोपयोगयुक्त होते हैं वे आश्रव रहित होते हैं। बाकी आश्रव सहित होते हैं । इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि दिगम्बर आचार्यों के अनुसार एक सीमा के बाद शुभयोग हेय हैं। जब तक मुनि शुद्धोपयोग की अवस्था में नहीं पहुँचता तब तक शुभयोग विहित हैं। मुनि को शुद्धोपयोग की अवस्था में पहुँचना चाहिये। फिर उसके लिए वन्दन, प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ भी हेय हैं। शुभयोगों को पुण्य की कामना से तो कभी करना ही नहीं चाहिए । नव पदार्थ श्री विनय विजयजी कहते हैं-"संयति मुनियों के भी शुभयोग शुभकर्मों का आश्रव करते हैं, जीव को कर्मरहित नहीं करते । शुभयोग भी मोक्ष-सुख को नाश करनेवाली स्वर्ण - श्रृंखला के समान हैं। अतः शुभ योगाश्रव का भी परिहार करे | स्वामीजी ने लिखा है- "जब मुनि आहार, गमनागमन आदि शुभयोगों को करता है तब निर्जरा के साथ-साथ आनुषंगिक फल के रूप में पुण्य कर्मों का आश्रव भी होता है । 'जब मुनि शुभयोगों का रुंधन करता है-जैसे उपवास आदि तपस्या करता है तब उसके निर्जरा होती है, पुण्य का आश्रव नहीं होता।' यह कैसे संभव हो सकता है ? क्योंकि जहां निर्जरा होगी वहां पुण्य होना अवश्यंभावी है। जब तक वह शुभयोगों में प्रवृत्त होता है तब उसके निर्जरा के साथ-साथ पुण्य का भी बंध होता है । चारित्रिक विकास के तेरहवें गुणस्थान में भी मुनि अयोगी नहीं होता। दिगगम्बर आचार्यों के अनुसार वह शुद्धोपयोगी होगा । श्वेताम्बर मत से उसके भी पुण्यकर्म का बंध होता है। आनुषंगिक रूप से पुण्य कर्मों का बन्धन होने पर भी शुभयोग हेय नहीं क्योंकि वास्तव में वे निर्जरा के ही हेतु हैं। गेहूँ के साथ पयाल की तरह पुण्य तो अनायास आकर्षित होते हैं । प्रवचनसार १.१४ १. २. वही ३.४४ ३. शान्त सुधारस ७.७ शुद्धा योगा रे यदपि यतात्मनां । स्रवंते शुभकर्माणि ।। कांचननिगडांस्तान्यपि जानीयात् । हतनिर्वृतिशर्माणि ।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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