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________________ पुण्य पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ४ २०७ अधर्म-पाप होता है। इन दोनों से रहित-शुद्ध परिणाम से कर्म का बंध नहीं होता'|' "श्री वीतराग देव, द्वादशांग शास्त्र और मुनिवरों की भक्ति करने से पुण्य होता है लेकिन कर्मक्षय नहीं होता। इस कथन के भाव का स्फोटन ब्रह्मदेव ने अपनी टीका में इस प्रकार किया है : “सम्यक्त्व पूर्वक देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति से मुख्यतः तो पुण्य ही होता है, मोक्ष नहीं होता। प्रश्न उठता है, यदि पुण्य मुख्यता से मोक्ष का कारण नहीं तो त्याज्य ही है ग्रहण योग्य नहीं । यदि ग्रहण योग्य नहीं तो भरत, सगर, राम, पांडवादि ने निरन्तर पंच परमेष्ठि के गुण-स्मरण क्यों किये और दान-पूजादि शुभ क्रियाओं से पुण्य का उपार्जन क्यों किया ? इसका उत्तर यह है-जैसे परदेश में स्थित कोई रामादि पुरुष अपनी प्यारी सीतादि स्त्री के पास से आये हुए किसी पुरुष से बातें करता है, उसका सम्मान करता है, यह सब कारण उसकी अपनी प्रियां के हैं। उसी तरह वे भरत आदि महान् पुरुष वीतराग परमानन्दरूप मोक्ष-लक्ष्मी के सुख अमृत रस के प्यासे हुए संसार की स्थिति के छेदन के लिए, विषय-कषाय से उत्पन्न हुए आर्त्त-रौद्र' ध्यानों के नाश के हेतु श्री पंच परमेष्ठि के गुणों का स्मरण करते हैं और दान-पूजादि करते हैं। पंच परमेष्ठि की भक्ति आदि शुभ क्रियाओं से जो भक्त आदि हैं उनके बिना चाहे पुण्य प्रकृति का आश्रव होता है। जैसे किसान की दृष्टि अन्न पर होती है तृण, भूसादि पर नहीं, वैसे उन्हें बिना चाहा पुण्य का बन्ध सहज ही होता है। आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं-“यदि श्रामण्य में अर्हदादि में भक्ति, प्रवचन-आगम में अभियुक्तों में वत्सलता होती है वह शुभ उपयोग युक्त चर्या होती है। सरागचर्या में श्रमणों में उत्पन्न श्रम-खेद को दूर करना, वन्दन-नमस्कार सहित अभ्युत्थान, अनुगमन की प्रतिपत्ति निन्दित नहीं है। निश्चय ही सम्यग्दर्शन और ज्ञान का उपदेश देना, शिष्य ग्रहण करना, उनका पोषण करना आदि सराग-संयमियों की चर्या है। जो मुनि सदा काल चार प्रकार के श्रमण-संघ का षट्काय जीवों की विराधनारहित उपकार करता है वह सराग-संयमियों में प्रधान होता है। १. परमात्मप्रकाश २. ७१ २. वही २. ६१ ३. वही २. ६१ की टीका ४. प्रवचनसार ३.४६-४७-४८-४६
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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