________________
२०६
नव पदार्थ
है'। जो दर्शन, ज्ञान, चारित्रमय आत्मा को नहीं जानता वही जीव पुण्य और पाप दोनों को मोक्ष का कारण जानकर करता है'।" यहाँ प्रश्न उठता है-परमतवादी पुण्य और पाप व समान मानकर स्वच्छंद रहते हैं। फिर उनको दोष क्यों दिया जाय? इसका उत्तर ब्रह्मदेव इस प्रकार देते हैं : “जब शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप तीन गुप्ति से गुप्त वीतराग-निर्विकल्प समाधि को पाकर ध्यान में मग्न हुए पुण्य और पाप को समान जानते हैं, तब तो जानना योग्य है। परन्तु जो मूढ परम समाधि को न पाकर भी गृहस्थ अवस्था में दान, पूजा आदि शुभ क्रियाओं को छोड़ देते हैं और मुनि-पद में छह आवश्यक कर्मों को छोड़ते हैं, वे दोनों बातों से भ्रष्ट होते हैं। वे न तो यती हैं, न श्रावक ही। वे निंदा योग्य ही हैं । तब उनको 'दोष ही है। ऐसा जानना।"
दिगम्बर विद्वानों की दृष्टि से शुभ, अशुभ और शुद्धोपयोग का स्थान इस प्रकार है : “पंच परमेष्ठी की वंदना, अपने अशुभ कृत्यों की निन्दा और प्रतिक्रमण पुण्य के कारण हैं (मोक्ष के कारण नहीं) इसलिए ज्ञानी पुरुष इन तीनों में से एक भी न तो करता, न कराता, न करते हुए को भला जानता है। एक ज्ञानमय शुद्ध पवित्र भाव को छोडकर अन्य वंदन, निन्दन और प्रतिक्रमण करना ज्ञानियों को युक्त नहीं। वन्दना करो, निन्दा करो, प्रतिक्रमण लेकिन जिसके अशुद्ध भाव हैं उसके नियम से संयम नहीं हो सकता। शुद्धोपयोगियों के ही संयम, शील, तप होते हैं, शुद्धों के ही सम्यक् दर्शन और सम्यक्ज्ञान होते हैं शुद्धों के कर्मों का नाश होता है। इसलिए शुद्ध उपयोग ही प्रधान है" | विशुद्ध भाव ही आत्मीय है। शुद्ध भाव को ही धर्म समझ कर अंगीकार करो । वही चारों गतियों के दुःखों में पड़े हुए इस जीव को आनन्द स्थान में रखता है । मुक्ति का मार्ग एक शुद्ध . भाव ही है। शुभ परिणाम से धर्म-पुण्य मुख्यता से होता है। अशुभ परिणामों से
१. परमात्मप्रकाश २.५३ २. वही २.५४ ३. वही २.५५ की टीका ४. वही २.६४ ५. वही २.६५
है... वही २.६६
७. वही २.६७ ८. वही २.६८ ६. वही २.६६