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पृ० ५८० ८. मोहनीयकर्म का क्षयोपशम और निर्जरा पृ० ५८१; ६. अन्तराय कर्म का क्षयोपशम और निर्जरा पृ० ५८३: १०. मोहकर्म का उपशम और निर्जरा पृ० ५८६; ११. क्षायिकभाव और निर्जरा पृ० ५८६; १२. तीन निर्मल भाव पृ० ५८८ )
निर्जरा पदार्थ ( ढाल : २ )
पृ० ५९०-६९२ निर्जरा (दो० १); अकाम सकाम निर्जरा (दो० २७); निर्जरा और धोबी का दृष्टान्त ( गा० २-४ ) ; निर्जरा की शुद्ध करनी (गा० ५); निर्जरा की करनी के बारह भेट (गा० ६-४५); अनशन (गा० ७-६); ऊनोदरी (गा० १० - ११); भिक्षाचरी ( गा० १२ ); रस-त्याग ( गा० १३ ) : काय- क्लेश (गा० १४); प्रतिसंलीनता ( गा० १५-२० ); बाह्य तप आभ्यन्तर तप (गा० २१); प्रायश्चित (गा० २२); विनय ( गा० २३ - ३७); वैयावृत्त्य ( गा० ३८ ) ; स्वाध्याय (गा० ३६); ध्यान ( गा० ४०); व्युत्सर्ग ( गा० ४१ ४५ ) : तपस्या का फल ( गा० ४६-५२); निर्जरा निरवद्य है (गा० ५३); निर्जरा और निर्जरा की करनी भिन्न-भिन्न हैं (५४-५६); उपसंहार (गा० ५७) ।
टिप्पणियाँ
(१. निर्जरा कैसे होती है ? पृ० ६०८ - उदय में आये हुए कर्मों के फलानुभव से; कर्म-क्षय की कामना से विविध तप करने से कर्म-क्षय की आकांक्षा बिना नाना प्रकार के . कष्ट करने से,; इहलोक - परलोक के लिए तप करते हुए; २. - निर्जरा, निर्जरा की करनी और उसकी प्रक्रिया पृ० ६२१; ३. निर्जरा की शुद्ध करनी पृ० ६२५: ४. अनशन पृ० ६२६ - ईत्वरिक अनशनः यावत् कथिक अनशनः प्रत्याख्यान ५. ऊनोदरिका पृ० ६३४- उपकरण अवमोदरिका : भक्तपान अवमोदरिका भाव अवमोदरिका: ६. भिक्षाचर्या तप पृ० ६४०; ७. रस- परित्याग पृ० ६४५ ८. काय क्लेश पृ० ६४८ ६. प्रतिसंलीनता पृ० ६५१; १० – बाह्य और आभ्यन्तर तप पृ० ६५४; ११. प्रायश्चित तप पृ० ६५६, १२. - विनय तप पृ० ६५६; ज्ञान-विनय : दर्शन-विनय, चारित्र - विनय १३. वैयावृत्त्य पृ० ६६४; १४. स्वाध्याय तप पृ० ६६६: १५. ध्यान तप पृ० ६६८: १६. व्युत्सर्ग तप पृ० ६७१; १७ तप, संवर निर्जरा पृ० ६७३ - आत्म शुद्धि के लिए इच्छापूर्वक की हुई तपस्या किस प्रकार कर्म-क्षय करती है : आत्म शुद्धि के लिए इच्छापूर्वक तप किसके हो सकता है ? संवर और निर्जरा का सम्बन्ध : तप की महिमा ; १८. निर्जरा और निर्जरा की करनी दोनों निरवद्य हैं पृ० ६६१)
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