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टिप्पणियाँ
[१. संवर छठा पदार्थ है पृ० ५०४ - संवर छठा पदार्थ है : संवर आस्रव-द्वार का अवरोधक पदार्थ है : संवर का अर्थ है आत्म-प्रदेशों को स्थिरभूत करना संवर आत्म-निग्रह से होता है : मोक्ष-मार्ग की आराधना में संवरं उत्तम गुण रत्न है; २. संवर के भेद, उनकी संख्या- परम्पराएँ और ५७ प्रकार के संवर पृ० ५०६ - द्रव्य संवर और भाव संवर : संवर- संख्या की परम्पराएँ : संवर के सत्तावन भेदों का विवेचन; ३. सम्यक्त्वादि बीस संवर एवं उनकी परिभाषाएँ पृ० ५२४; ४. सम्यक्त्व आदि पाँच संवर और प्रत्याख्यान का सम्बन्ध पृ० ५२७; ५. अन्तिम पन्द्रह संवर विरति संवर के भेद क्यों ? पृ० ५३३; ६. अप्रमादादि संवर और शंका-समाधान पृ० ५३४; ७. पाँच चारित्र और पाँच निर्ग्रन्थ संवर है पृ० ५३६; ८. सामायिक चारित्र पृ० ५३८; ६. औपशमिक चारित्र पृ० ५३६; १०. यथाख्यात चारित्र पृ० ५४०; ११. क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक चारित्रों की तुलना पृ० ५४१; १२. सर्व विरति चारित्र एवं यथाख्यात चारित्र की उत्पत्ति पृ० ५४१; १३. संयम-स्थान और चारित्र - पर्यव पृ० ५४२; १४. योग-निरोध और फल पृ० ५४५, १५. संवर भाव जीव है पृ० ४४५)
७. निर्जरा पदार्थ (ढाल : १)
पृ० ५४९-५८९
निर्जरा सातवाँ पदार्थ है (दो० १); निर्जरा कैसी होती है ? (गा० १-८); निर्जरा की परिभाषा ( गा० ८); निर्जरा और मोक्ष में अन्तर (गा० ६); ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से निष्पन्न भाव (गा० १०-१८); ज्ञान, अज्ञान दोनों साकार उपयोग (गा० १८ ): दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न भाव ( गा० १६-२३); अनाकार उपयोग ( गा० २४ ) : मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न भाव ( गा० २५-४०); अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न भाव (गा० ४१-५५); उपशम भाव (गा० ५६-५७); क्षायिक भाव (गा० ५८-६२); तीन निर्मल भाव (गा० ६३); निर्जरा और मोक्ष ( गा० ६४-६५); रचना- स्थान और काल ( गा० ६६) ।
टिप्पणियाँ
( १. निर्जरा सातवां पदार्थ है पृ० ५६८: २. अनादि कर्म-बन्धन और निर्जरा पृ० ५७०; ३. उदय आदि भाव और निर्जरा पृ० ५७२; ४. निर्जरा और मोक्ष में अन्तर पृ० ५७५: ५. ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम और निर्जरा पृ० ५७५: ६. ज्ञान और अज्ञान साकार उपयोग और क्षायोपशमिक भाव हैं ५७६: ७ दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम और निर्जरा