SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्य पदार्थ : (ढाल : २) १६३ ३६. पुण्य बंध इन्हीं नौ प्रकार से होता है। ये सब बोल निरवद्य हैं। इन सबमें जिन भगवान की आज्ञा है। बुद्धिमान इस बात की पहचान करें। पुण्य के नवों बोल निरवद्य व जिन आज्ञा में हैं नवों बोल क्या अपेक्षा रहित हैं ? (गा० ४०-४४) ४०-४१. कई कहते हैं कि भगवान ने नवों बोल समुच्चय-(बिना किसी अपेक्षा के) कहे हैं। सावद्य-निरवद्य, सचित्त-अचित्त, पात्र-अपात्र का भेद नहीं किया है। इसलिए सचित्त-अचित्त दोनों प्रकार के अन्न आदि देने का भगवान ने कहा है, तथा पात्र-कुपात्र दोनों को देने को कहा है सबको देने में पुण्य है। ऐसा कहने वाले सूत्रों का नाम लेकर झूठ बोलते हैं। ४२. वे कहते हैं कि साधु श्रावक इन पात्रों को देने से तीर्थङ्कर नामादि पुण्य प्रकृतियों का बंध होता है तथा अन्य लोगों को दान देने से अन्य पुण्य प्रकृति का बंध होता है। २३. वे स्थानाङ्ग सूत्र का नाम लेकर ऐसा कहते हैं और नवें स्थानक में अर्थ दिखलाते हैं। परन्तु न होता हुआ अर्थ वहाँ घुसा दिया गया है-भोले लोगों को इसकी खबर नहीं है। ४५. ४४. यदि 'अन्य को' देने से भी पुण्य होता है तब तो एक भी जीव बाकी नहीं रहता। परन्तु कुपात्र को देने से पुण्य कैसे होगा ? यह विवेक पूर्वक समझने की बात है | पुण्य के नौ बोल समुच्चय (बिना खुलाशा) कहे गये हैं; समुच्चय बोल स्थानाङ्ग सूत्र के ६ वें स्थानक में कोई निचोड़ नहीं है। अपेक्षा रहित नहीं ___ (गा० ४५-५४) इसी तरह वंदना और वैयावृत्य के बील भी समुच्चय कहे हैं। गुणी इनका मर्म समझ लें। ४६. वंदना करता हुआ जीव नीच गोत्र को खपाता है और उच्च गोत्र का बंध करता है तथा वैयावृत्य करने से तीर्थंकर गोत्र का बंध करता है। ये भी समुच्च्य बोल हैं।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy